New Delhi, 12 अगस्त . इतिहास के पन्नों पर नजर डालने पर, कई महिलाओं की वीरता और करुणा की कहानियां सामने आती हैं. ये महिलाएं बाधाओं और परंपराओं से घिरी हुई थीं, फिर भी उन्होंने जीवन की कठिनाइयों का मुकाबला किया और अपनी मातृभूमि की सेवा के लिए दृढ़ संकल्पित रहीं. ये कहानियां हर पीढ़ी को उनके छोड़े गए पदचिह्नों की याद दिलाती हैं. ऐसी ही एक किंवदंती, एक बहादुर योद्धा और एक महान नेता, मालवा की रानी “देवी अहिल्याबाई होल्कर” हैं, जिन्हें राजमाता और देवी के रूप में सम्मानित किया जाता है.
31 मई 1725 ई. को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड स्थित चौंडी गांव में मनकोजी और सुशीला शिंदे के परिवार में विरासत का युग शुरू हुआ. महारानी अहिल्याबाई का कोई शाही वंशज नहीं था, बल्कि उनका पालन-पोषण एक साधारण परिवार में हुआ था. उस समय महिलाएं स्कूल नहीं जाती थीं, लेकिन अहिल्याबाई के पिता ने उन्हें पढ़ना-लिखना सिखाया.
इंदौर के देवी होल्कर विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर यह जिक्र मिलता है कि इतिहास के रंगमंच पर अहिल्याबाई का प्रवेश एक संयोग मात्र था. मराठा पेशवा बालाजी बाजीराव के सेनापति और मालवा क्षेत्र के स्वामी मल्हार राव होल्कर, पुणे जाते समय चौंडी में रुके और किंवदंती के अनुसार, उन्होंने गांव के मंदिर में आयोजित सेवाकार्य में 8 वर्षीय अहिल्याबाई को देखा. उनकी धर्मपरायणता और चरित्र को पहचानकर, वे उस कन्या को अपने पुत्र खंडेराव (1723-1754) के लिए वधू के रूप में होल्कर क्षेत्र में ले आए.
वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 1733 में उनका विवाह खंडेराव होल्कर से हुआ. 1745 में, उन्होंने अपने पुत्र मालेराव और 1748 में एक पुत्री मुक्ताबाई को जन्म दिया. मालेराव मानसिक रूप से अस्वस्थ थे और 1767 में उनकी बीमारी के कारण मृत्यु हो गई. अहिल्याबाई ने एक और परंपरा को तोड़ा जब उन्होंने अपनी बेटी का विवाह यशवंतराव से किया, जो एक बहादुर लेकिन गरीब व्यक्ति था, क्योंकि उसने डाकुओं को हराने में सफलता प्राप्त की थी.
1733 में विवाह के बाद भी वे परिवार की सेवा करती रहीं. अहिल्याबाई के पति खंडेराव होल्कर 1754 में कुंभेर के युद्ध में मारे गए. ऐसे समाज में जहां स्त्रियों के लिए उन्नति के कोई साधन उपलब्ध नहीं थे, उस समय इस महान कलाकार शालिनी ने अपने ‘पति’ के साथ ‘सती’ हुए बिना ही प्रजापालक जीवन जीना स्वीकार किया. 1766 में उनके ससुर मल्हारराव होल्कर की मृत्यु के बाद पूरे राज्य का दायित्व उन पर आ गया. 1766 से 1799 तक का समय भारतीय महिलाओं की महान कूटनीति और उनकी न्यायपूर्ण और साहसी नीतियों का गौरवशाली काल था.
उन्होंने समाज की भलाई के लिए अनेक परियोजनाएं शुरू कीं, जिनमें मंदिरों (जिन्हें मुगलों ने क्रूरता का शिकार बनाया था), घाटों, कुओं, शैक्षणिक और स्वास्थ्य संस्थाओं का निर्माण और जीर्णोद्धार शामिल था. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की वेबसाइट पर यह उल्लेख मिलता है कि 11 दिसंबर, 1767 को उन्हें इंदौर की रानी के रूप में विधिवत अधिकृत किया गया.
18वीं शताब्दी में मौजूद मजबूत लैंगिक बाधाओं और मान्यताओं पर काबू पाने में उनकी अनगिनत उपलब्धियां कई पीढ़ियों के लिए नारी जाति के लिए प्रेरणा बनीं. भगवान शिव की भक्ति करने वालीं अहिल्याबाई होल्कर लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु बढ़ाने, महिलाओं के संपत्ति के अधिकार को सुरक्षित करने और विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन करने में थीं. उनके दौर में यह ऐसे मुद्दे थे, जिन पर चर्चा करना भी मुश्किल था.
लोकमाता अहिल्याबाई होल्कर ने कभी भी ईश्वर की सेवा और लोगों की सेवा के बीच अंतर नहीं किया. वे हमेशा अपने साथ शिवलिंग रखती थीं. यह उनकी गहरी भक्ति को दर्शाता है. 31 मई 2025 को जब देवी अहिल्याबाई की 300वीं जन्म जयंती थी, उस समय प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में इसका जिक्र किया था.
अहिल्याबाई होल्कर के जीवन पर आधारित महाराष्ट्र साहित्य एवं संस्कृति मंडल की किताब, जिसे विजया जहागीरदार ने लिखा, उसमें जिक्र है कि मुसलमानों के प्रति उनका दृष्टिकोण मानवीय और उदार था. अपने सहिष्णु रवैये के कारण, उन्होंने मुस्लिम राज्य में भी लोकप्रियता हासिल की. हैदराबाद के राजा हमेशा अहिल्याबाई के कुशल और शुभ भाग्य के बारे में चिंतित रहते थे. एक बार, हैदराबाद से अहिल्या देवी के वकील महादेव लक्ष्मण ने संगीत वाद्ययंत्र बजाने के लिए कुछ धन मांगा. होल्करों के कुलदेवता मार्तंड थे. अहिल्या देवी ने देखा कि उस मंदिर में वाद्य यंत्र बजाने के लिए पैसे मांगे जा रहे हैं. तब अहिल्याबाई ने उन्हें बताया कि मुसलमानों को वाद्ययंत्र पसंद नहीं हैं. उनकी भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई जानी चाहिए. हम यह मांग दोबारा न करें, बस एक मंजुल वजंत्री स्थापित कर दें.
देवी अहिल्याबाई दृढ़ इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प का प्रतीक हैं, जो दर्शाती हैं कि चाहे कितनी भी प्रतिकूल परिस्थितियां क्यों न हों, परिवर्तनकारी परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं. ढाई सौ से तीन सौ साल पहले, जब देश उत्पीड़न की जंजीरों में जकड़ा था, ऐसे असाधारण कार्य करना, इतने बड़े कि पीढ़ियां आज भी उनको याद करती हैं, कोई आसान काम नहीं था.
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की वेबसाइट के अनुसार, 1795 ई. के श्रावण कृष्ण पक्ष में हिंदू श्रावण मास में व्रत और उत्सवों का क्रम चलता रहता था, जो देवी के लिए अत्यंत व्यस्त महीना था. बारह हजार लोगों को भोजन कराने और राज्य के कल्याण के लिए निर्धारित दान देने के बाद देवी ने 70 साल की आयु में प्राण त्याग दिए. 13 अगस्त 1795 को अहिल्याबाई होल्कर का निधन हुआ. 13 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि पर, विशेष रूप से महेश्वर और इंदौर जैसे स्थानों पर, लोग उनके योगदान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं.
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डीसीएच/एएस