जानवरों के बाद मानवों में भी सफल रहा पार्किंसन का परीक्षण, जल्द ही बाजारों में आ सकती है दवा

नई दिल्ली, 18 सितंबर . पार्किंसन नर्वस सिस्टम की गंभीर बीमारी है, जिसमें हमें शरीर के अंगों पर नियंत्रण करने में कठिनाई होती है. इस बीमारी के उपचार के लिए अमेरिका के बोस्टन में चल रहे ट्रायल जानवरों के बाद अब इंसानों में भी सफल रहे हैं. अगर सब कुछ ठीक रहा तो जल्दी ही यह दवा बाजार में बिकने के लिए तैयार होगी.

इस महत्वपूर्ण शोध से जुड़े मुख्य रसायन विज्ञानी व कुमाऊं विश्व विद्यालय के कुलपति प्रोफेसर दीवान सिंह रावत ने बताया कि अमेरिका के बोस्टन में इसका मानवों पर परीक्षण सफल रहा है.

उन्होंने से बात करते हुए कहा, “पार्किंसन मुख्य रूप से वृद्ध लोगों में होती है. जब यह बीमारी होती है तो इसके सामान्य लक्षणों में हाथ-पैर का कंपन जैसा हिलना, याददाश्त खोना शामिल है. एक अवस्था ऐसी आती है जब व्यक्ति कुछ भी नहीं कर सकता, क्योंकि इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है. इसका कारण यह है कि मानव मस्तिष्क में लगभग 86 अरब न्यूरॉन होते हैं. इन डोपामिनर्जिक न्यूरॉन डोपामाइन का उत्पादन करते हैं. जब किसी कारणवश डोपामाइन उत्पादन में कमी आती है, तो पार्किंसन रोग के लक्षण दिखने लगते हैं.”

उन्होंने बताया कि अभी तक जो दवा उपयोग की जाती है, वह एल्डोपा से संबंधित यौगिक हैं. यह दवा इलाज नहीं कर पाती. यह केवल प्रबंधन करती है. जब पार्किंसन रोग बढ़ता है तो सभी दवाएं बेकार हो जाती हैं. व्यक्ति तब तक पीड़ित रहता है जब तक कि वह मर नहीं जाता. इस बीमारी में केवल मरीज ही नहीं, बल्कि उनके परिवार के लोग भी परेशान होते हैं. इस बीमारी का अभी तक कोई इलाज नहीं है.

वह आगे कहते हैं कि 2012 में हमने यह कार्य अमेरिकी अधिकारियों के सहयोग से शुरू किया था. चूंकि हम रसायन विज्ञानी हैं. हम यौगिकों को डिजाइन करते हैं और उन्हें बनाते हैं. जब औषधीय रसायन विज्ञानी 10 हजार यौगिकों को बनाते हैं, तो उनमें से केवल एक यौगिक बाजार में दवा के रूप में आता है. इसे विकसित करने में 10 से 18 साल का समय लगता है. जिसमें कुल खर्च लगभग 45 करोड़ अमेरिकी डॉलर होता है. यह बड़ा कठिन कार्य होता है. जब आपके पास 86 अरब न्यूरॉन्स होते हैं और आपको एक न्यूरॉन को लक्षित करना होता है, तो यह बहुत ही चुनौतीपूर्ण होता है. हमारा कोलेबोरेशन बोस्टन के मैकलीन अस्पताल में 2012 में शुरू हुआ था. तब से हम इस पर लगातार कार्यरत थे. हमने पशुओं पर इसका टेस्ट किया और यह भी प्रमाणित किया कि बिना किसी दुष्प्रभाव के इस यौगिक का क्यूरेटिव प्रभाव हो सकता है. यह पार्किंसन रोग को ठीक कर सकता है. इस शोध को हमने पिछले साल एक बड़े जर्नल “नेचर कम्युनिकेशन” में प्रकाशित किया था.

इसके पेटेंट पर बताते हुए वह कहते हैं, “2021 में हमने प्रौद्योगिकी हस्तांतरण किया और अब जो पेटेंट हैं, वे दिल्ली विश्वविद्यालय और मैकलीन अस्पताल के संयुक्त पेटेंट हैं, जिसमें हमने चौदह पेटेंट हासिल किए हैं. पिछले साल इस यौगिक को एक दवा के रूप में बनाने के लिए अमेरिका की तीन कंपनियां एक साथ आई थीं. इसके नैदानिक परीक्षण में बहुत खर्च आता है. इसके लिए एमजे फॉक्स फाउंडेशन ने पूरा फंड किया था. पिछले साल इसका मानव चरण 1 नैदानिक परीक्षण शुरू हुआ. हमारे इस रिसर्च को ब्लूमबर्ग और वॉल स्ट्रीट जर्नल ने भी प्रकाशित किया था. यह ऐसा यौगिक है जो लाइलाज बीमारी की संभावना के तौर पर देखा जा रहा है. मानव नैदानिक परीक्षण से पता चला कि इस यौगिक की विषाक्तता सीमा में है. अगले साल से इस यौगिक के द्वारा पार्किंसन रोग के मरीजों का उपचार शुरू होगा. हमारे पास जो डेटा है, उसके अनुसार उम्मीद की जा सकती है कि यह यौगिक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दवा के रूप में आ सकता है.

उन्होंने आगे कहा कि अगर यह बाजार में आता है तो यह एक बहुत बड़ी खोज होगी. अभी फेज-1 का डेटा हमारे पास आया है. अब इसके लिए बहुत सारे अनुमोदनों की आवश्यकता होती है. इसलिए इसमें थोड़ा समय लगेगा. अगले साल की शुरुआत में चरण 2 में फिर यह देखा जाएगा कि मरीजों के उपचार में कितना सुधार होता है. अगर 40 से 50 प्रतिशत भी सुधार हो जाता है, तो यह न्यूनतम स्थिति होगी. इस लिहाज से हम काफी आशान्वित हैं, क्योंकि चरण 1 बहुत चुनौतीपूर्ण होता है.”

पीएसएम/एएस