भरमार (भर के मारो) व मजर लोडिंग… नाम से प्रसिद्ध टोपीदार बंदूक से फिर जंग हटेगा. 15 साल बाद जिला कलक्टर ने समस्त उपखंड अधिकारियों को इन बंदूकों के नवीनीकरण करने के आदेश जारी किए है. यह बंदूक आदिवासी का गहना होकर उनकी पहचान है. तेज धमाका करने वाली इस बंदूक को खेतीहर लोग हिंसक जानवरों के बचाव के लिए करते थे लेकिन इस बंदूक की बनावट व कार्यशैली को जाने बिना इसे कारतूसी हथियार की श्रेणी में डालने व लाइसेंस नवीनीकरण में जटिलता तथा फीस बढ़ाने से यह बंदूक गायब हो गई थी. गंगानगर में फर्जी लाइसेंस कांड के बाद इसके लाइसेंस नहीं बन पाए. आज भी उदयपुर संभाग के कई लोगों के पास यह बंदूक मौजूद है लेकिन नवीनीकरण नहीं हो पा रहा है.
यह बंदूकें पूरे भारत में सिर्फ उदयपुर में बनती थी, एक साल में 50 से 60 हजार बंदूकें निर्मित होकर अलग-अलग राज्यों में पहुंचती थी लेकिन गंगानगर में फर्जी लाइसेंस कांड के बाद अब पूरे साल 100 भी नहीं बन पा रही है, इसके चलते बंदूक के कई कारखाने बंद हो गए.
टोपीदार बंदूक का इतिहास आजादी की जंग से जुड़ा हुआ है. सन 1857 की क्रांति में टोपीदार बंदूक इजाद हुई. इस बंदूक की नाल में बारूद भरकर टोपी लगाई जाती है. इसे चलाने के बाद तेज आवाज के साथ धमाका होता है, जिससे हिंसक पशु जानवरों में आत्मरक्षा के लिए काम आने लगी और आदिवासियों की पहचान बन गई.
उदयपुर संभाग के अलावा सिरोही, अजमेर, कोटा kota , झालावाड़ में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के अनपढ़ किसान है. भील, गरासिया अपनी छोटी-मोटी जमीन में बुवाई के साथ ही मजदूरी कर जीवनयापन करते है. दूरदराज के इन गांवों में पैंथर, भेडिय़ा, सियार, भालू, नील गाय आदि जानवर खेतों में घुसकर फसल को बर्बाद के साथ ही इंसानों पर हमला करते है. इन हिंसक पशुओं से बचने के लिए ही खेतीहर लोग टोपीदार बंदूक काम में लेते है.