New Delhi, 1 अगस्त . जब भारतीय कला के इतिहास में आधुनिकता की पहली गूंज सुनाई दी, तो उसमें सबसे बुलंद स्वर, रामकिंकर बैज का था. ग्रामीण भारत की मिट्टी से निकले इस कलाकार ने न केवल भारतीय मूर्तिकला को एक नई पहचान दी, बल्कि उसे जनता के बीच ले जाकर लोकजीवन, श्रम, संघर्ष और संवेदना का प्रतीक बना दिया.
2 अगस्त को उनकी पुण्यतिथि पर, देश उस महान कलाकार को श्रद्धांजलि दे रहा है, जिसने अपने जीवन और कृतियों से भारतीय कला को एक नया दृष्टिकोण दिया. रामकिंकर बैज का जन्म 25 मई, 1906 को बांकुरा (पश्चिम बंगाल) के एक गरीब परिवार में हुआ. बचपन से ही उन्हें मिट्टी, हल्दी और चारकोल जैसे प्राकृतिक माध्यमों से चित्र बनाने में रुचि थी. बांकुरा के स्थानीय मूर्ति-निर्माताओं, खासकर आनंद पाल से प्रेरणा लेकर उन्होंने मिट्टी से मूर्तियां बनाना शुरू किया. यहीं से उनके जीवन की कलात्मक यात्रा की शुरुआत हुई.
रमणंद चटर्जी को उनकी प्रतिभा को पहचान दिलाने का श्रेय जाता है, जिनकी मदद से रामकिंकर को 1925 में शांति निकेतन स्थित कला भवन में प्रवेश मिला. यहां नंदलाल बोस और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान गुरुओं के मार्गदर्शन में उन्होंने अपने कौशल को विस्तार दिया और परंपराओं की जंजीरों को तोड़ते हुए नवीन प्रयोगों की ओर कदम बढ़ाए.
रामकिंकर बैज को अक्सर आधुनिक भारतीय मूर्तिकला का जनक कहा जाता है. उन्होंने पारंपरिक भारतीय विषयों को आधुनिक तकनीक और सामग्रियों के साथ प्रस्तुत किया. उन्होंने सीमेंट, लैटराइट और कंक्रीट जैसी सामग्रियों का उपयोग करके विशालकाय मूर्तियां बनाईं, जो उस दौर में नया था.
‘संथाल परिवार’ (1938) एक आदिवासी परिवार को घर लौटते हुए दर्शाती है. यह मूर्ति भारत की पहली सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित मूर्तियों में से एक मानी जाती है. ‘कॉल ऑफ द मिल’ (1956) एक और उल्लेखनीय रचना है, जो मिल में काम पर जाती महिलाओं की जीवंत छवि प्रस्तुत करती है और श्रम तथा नारी शक्ति का प्रतीक है. इसके अलावा, ‘यक्ष’ और ‘यक्षी’ मूर्तियां, जो आरबीआई के लिए बनाई गईं, पारंपरिक विषयों को आधुनिक प्रतीकों जैसे मशीन और मुद्रा की थैली के साथ पुनर्व्याख्या करती हैं, जो उनकी कला की अनूठी शैली को दर्शाती हैं.
मूर्तिकला के अलावा, उनकी पेंटिंग्स भी उतनी ही प्रभावशाली थीं. उन्होंने ऑयल ऑन कैनवस पर रंगों और रूपों के साथ प्रयोग किए, जिनमें आधुनिकता, ग्रामीण जीवन और मानवीय भावनाओं की झलक मिलती है. उनकी पेंटिंग्स आज भी दुर्लभ और बहुमूल्य मानी जाती हैं. कलाकार होने के साथ-साथ, वह एक सच्चे गुरु भी थे. उनके शिष्य सोमनाथ होरे और धीरज चौधुरी जैसे कलाकारों ने आगे चलकर भारतीय कला को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई. रामकिंकर का जोर हमेशा मौलिकता, स्वाभाविकता और आत्म-अभिव्यक्ति पर रहा. उन्होंने कभी भी शैली या सीमाओं में खुद को नहीं बांधा.
1921 के असहयोग आंदोलन के दौरान, उन्होंने पोस्टर और राष्ट्रीय नेताओं के चित्र बनाकर कलात्मक रूप से स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया.
उनके अपूर्व योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1970 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया. यह सम्मान न केवल उनकी कला के लिए था, बल्कि उनके जीवन और दर्शन के लिए भी, जिसने कला को आम आदमी से जोड़ा. 2 अगस्त 1980 को कोलकाता में रामकिंकर बैज का निधन हो गया.
–
पीएसके/एएस