New Delhi, 24 जुलाई . आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने बिहार विधानसभा चुनावों के बहिष्कार का संकेत देकर पूरे देश में एक नई Political बहस छेड़ दी है. चुनाव लड़ना या नहीं लड़ना, यह स्वाभाविक रूप से Political दलों की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है. हालांकि, बिहार के परिदृश्य में इसके अलग मायने हैं.
तेजस्वी यादव बिहार में मुख्य विपक्षी नेता हैं. अन्य विपक्षी दलों की तरफ से भी ‘चुनाव बहिष्कार’ पर समर्थन मिलता है, तो इससे राज्य में परिस्थितियां बदल सकती हैं और इसका सीधा असर आगामी बिहार विधानसभा चुनाव पर पड़ सकता है. असल में चुनाव में भागीदारी और प्रतिस्पर्धा लोकतंत्र का आधार है, लेकिन यहीं से सवाल उठता है कि अगर बिहार में विपक्ष ‘बहिष्कार’ करता है तो क्या इस स्थिति में चुनाव कराए जा सकते हैं?
किसी एक पद या एक सीट पर कोई प्रतिद्वंद्वी न होने पर उम्मीदवार को निर्विरोध चुन लिया जाता है, लेकिन क्या विपक्ष के ‘चुनाव बहिष्कार’ करने पर भी इसी तरह का कोई नियम लागू रहता है, उसको समझना जरूरी है.
संविधान का अनुच्छेद 324 कहता है कि निर्वाचन आयोग को निर्वाचक नामावली के रख-रखाव तथा स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से निर्वाचनों के संचालन का अधिकार है. अनुच्छेद 324 में यह उपबंध है कि Lok Sabha और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे. अनुच्छेद 324 के अधीन President पद का भी चुनाव कराने का अधिकार India निर्वाचन आयोग में निहित है. हालांकि, नियम में कहीं जिक्र नहीं है कि Political दलों की ओर से ‘बहिष्कार’ पर चुनाव प्रक्रिया को रोक दिया जाए.
इस संबंध में सबसे ताजा उदाहरण दिल्ली का मेयर चुनाव हो सकता है. अप्रैल 2025 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने मेयर चुनाव का बहिष्कार किया था. इसके बावजूद चुनाव प्रक्रिया पूरी की गई और राजा इकबाल सिंह दिल्ली के मेयर चुने गए. कांग्रेस ने मेयर चुनाव में हिस्सा लिया था और उसे महज 8 वोट ही मिले. इस चुनाव में बेगमपुर वार्ड से भाजपा पार्षद जय भगवान यादव डिप्टी मेयर चुने गए.
1989 का मिजोरम विधानसभा चुनाव हो, 1999 का जम्मू कश्मीर या 2014 का Haryana विधानसभा चुनाव हो, कुछ Political पार्टियों के आंशिक ‘बहिष्कार’ के बाद भी चुनाव कराए गए और परिणाम भी आए.
कानूनी स्तर पर Supreme court भी कई उदाहरण दे चुका है, जिनमें Political दलों के ‘बहिष्कार’ के बावजूद चुनाव संपन्न हुए. इसमें 1989 का मिजोरम चुनाव भी शामिल है. Supreme court ने टिप्पणी की थी, “चुनाव प्रक्रिया वैध होने और संवैधानिक मानकों का पालन करने तक ‘बहिष्कार’ किसी चुनाव को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता है.”
हालांकि, ‘चुनाव बहिष्कार’ पर Political दलों को जनता का समर्थन मिलने पर इलेक्शन को टालना निर्वाचन आयोग के लिए एक मजबूरी बन सकता है. यह भी स्पष्ट है कि लंबे समय तक चुनाव न लड़ने पर Political दल की मान्यता भी खतरे में पड़ सकती है, जिसे 1968 के चुनाव चिन्ह आदेश से समझा जा सकता है. इस आदेश के मुताबिक, चुनावों से लगातार दूरी या न्यूनतम वोट प्रतिशत न पाने की स्थिति में Political दल की मान्यता रद्द की जा सकती है.
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डीसीएच/केआर