नई दिल्ली, 6 जुलाई . ‘द्रास के टाइगर’ के नाम से मशहूर कारगिल युद्ध के हीरो कैप्टन अनुज नैयर को उनकी बहादुरी के लिए ‘मरणोपरांत महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया है. महज 24 साल के इस नौजवान ने सिर पर कफन बांधकर दुश्मनों से लोहा लिया. इस दौरान दुश्मन देश के एक ग्रेनेड का निशाना बनने से वह 7 जुलाई 1999 को वीरगति को प्राप्त हुए. कैप्टन की कहानी आज भी देश के नौजवानों में वीरता का जज्बा पैदा करती है.
कैप्टन अनुज नैयर का जन्म 28 अगस्त 1975 में दिल्ली में हुआ था. उनके पिता एस.के. नैयर एक प्रोफेसर थे और मां मीना नैयर दिल्ली यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में काम करती थीं. उन्हें बचपन से ही सेना और बंदूक में काफी दिलचस्पी थी. उनके दादा आर्मी में थे और अनुज का उनसे काफी जुड़ाव था. उनके परिवार वालों की माने तो वह बचपन से ही बहादुर थे. एक हादसे में उन्हें गंभीर चोट लग गई थी, उस दौरान अनुज ने बिना एनेस्थीसिया के 22 टांके लगवा लिए थे. उस दौरान छोटी उम्र के लड़के की यह हिम्मत देखकर डॉक्टर भी अचंभित रह गया था.
अनुज 12वीं के बाद पहले अटेम्प्ट में ही राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) के लिए चुने गए थे. साल 1993 में उनकी ट्रेनिंग शुरू हुई और 1996 में वह पास आउट हुए. इसके बाद 21 साल की उम्र में आईएमए देहरादून से 7 जून 1997 को सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में पास आउट हुए. उन्हें 17वीं जाट रेजिमेंट में कमीशन मिला. दो साल बाद ही कारगिल की जंग छिड़ गई और उन्हें मैदान-ए-जंग में भेजा गया.
अनुज कुछ दिन पहले ही लेफ्टिनेंट से प्रमोट होकर कैप्टन बने थे. उन्हें जाट रेजीमेंट की चार्ली कंपनी के साथ कारगिल युद्ध में भेजा गया. कारगिल की पॉइंट 4875 चोटी पर पाकिस्तान का कब्जा था और अपनी जमीन को वापस लेने की जिम्मेदारी इस कंपनी को मिली. कंपनी ने 6 जुलाई को अपना मिशन शुरू किया लेकिन कंपनी कमांडर शुरुआत में ही गोलियों से घायल हो गए और उन्हें वहां से हटा लिया गया. इसके बाद कंपनी की कमान 23 साल के कैप्टन अनुज नैयर को मिली.
दुश्मन की पोजीशन मजबूत थी और वह हमारे जवानों पर सीधा अटैक करने की स्थिति में था. दुश्मनों के पास ज्यादा मैन पावर और गोला बारूद था. वहीं, हमारे सैनिकों के पास छिपने की जगह नहीं था. एक-एक करके टीम के सैनिक शहीद होते गए, लेकिन टीम का हौसला कम नहीं हुआ. कैप्टन अनुज भी घायल हो गए, लेकिन उनके खून से लथपथ हाथ बंदूक की ट्रिगर से हटने का नाम नहीं ले रहे थे. उन्होंने एक-एक करके दुश्मनों के नौ सिपाहियों को मार गिराया और तीन बड़े बंकरों को बर्बाद कर दिया.
सुबह के पांच बज चुके थे और दुश्मन भारतीय सैनिकों को आसानी से देख सकते थे. कैप्टन के साथी ने उन्हें आगे बढ़ने से रोका, लेकिन 23 साल के गर्म खून ने आगे बढ़ने का फैसला किया. सिर पर कफन बांधे अनुज नैयर ने दुश्मन के चौथे बंकर को नष्ट करने कूद पड़े. इस दौरान एक ग्रेनेड सीधे उन्हें लगी और वह शहीद हो गए. उनकी बहादुरी के लिए उन्हें ‘मरणोपरांत महावीर चक्र’ से सम्मानित किया गया. वहीं, द्रास सेक्टर की सुरक्षा के लिए लड़ते हुए शहीद होने के कारण उन्हें ‘द्रास का टाइगर’ उपनाम दिया गया.
शहीद होने से पहले अपने पिता को लिखी आखिरी चिट्ठी से उनकी बहादुरी के झलक मिलती है. इसमें उन्होंने लिखा था कि अभी तक कोई ऐसा माई का लाल नहीं मिला जो मुझसे जीत पाए. वह दिन कभी नहीं आएगा जब मुझे हार का स्वाद चखना पड़ेगा. डर नाम का कोई शब्द उस डिक्शनरी में है ही नहीं जो आपने मुझे दी है. अब मैं हथियार चलाने में माहिर हो गया हूं. यहां तक कि मैं अब बिना हथियार के भी किसी का मुकाबला कर सकता हूं. आप चिंता मत कीजिए.
कैप्टन अनुज नैयर की सगाई हो चुकी थी और शादी की तारीख भी तय थी. लेकिन जंग में जाने से पहले उन्होंने अपनी सगाई की अंगूठी अपने ऑफिसर को दे दी थी. उन्होंने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि अगर लड़ाई में शहीद होना पड़े तो उनकी रिंग दुश्मन के हाथों में जाए. महज 23 साल में शहादत को गले लगाने वाले कैप्टन की कहानी आज भी देश के युवाओं में बहादुरी का जज्बा पैदा करती है.
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एससीएच/एकेजे