आग में स्वाहा हुआ स्टूडियो, लेकिन जरा भी डिगा नहीं हौसला, कुछ ऐसा था बी. एन. सरकार का जज्बा

मुंबई, 4 जुलाई . जिंदगी में कभी-कभी ऐसे पल आते हैं जो हमें तोड़कर रख देते हैं और सपनों को राख में बदल देते हैं. लेकिन वही राख कुछ लोगों के लिए उड़ने के नए पंख बन जाती है. बी. एन. सरकार की कहानी कुछ ऐसी ही प्रेरणादायक मिसाल है. वह सिर्फ एक फिल्म निर्माता नहीं थे, बल्कि सिनेमा के एक ऐसे साधक थे जिन्होंने भारतीय फिल्म जगत को नई दिशा दी. सन् 1940 में एक आग ने उनका पूरा न्यू थिएटर्स स्टूडियो, रिकॉर्डिंग्स और वर्षों की मेहनत को जला दिया. ऐसे समय में अगर कोई आम इंसान होता तो शायद टूट जाता, लेकिन बी. एन. सरकार ने हार नहीं मानी. उन्होंने उस राख से फिर अपने सपनों को जिंदा किया, नए कलाकारों को मंच दिया, और भारतीय सिनेमा को फिर से ऊंचाइयों तक पहुंचाया.

बी. एन. सरकार का पूरा नाम बीरेंद्रनाथ सरकार था. उनका जन्म 5 जुलाई 1901 को बिहार के भागलपुर में हुआ था. उनके पिता, सर निरेंद्रनाथ सरकार, बंगाल के पहले एडवोकेट जनरल थे, और उनके परदादा, पीरी चरण सरकार, ने अंग्रेजी भाषा की पहली भारतीय टेक्स्टबुक लिखी थी.

बी. एन. सरकार ने कोलकाता के प्रसिद्ध हिंदू स्कूल से पढ़ाई करने के बाद लंदन यूनिवर्सिटी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. विदेश से लौटने के बाद उन्होंने कोलकाता में बतौर इंजीनियर करियर की शुरुआत की, लेकिन वह अपना बिजनेस करना चाहते थे. एक दिन उन्होंने सिनेमा हॉल के बाहर टिकट के लिए लंबी लाइन देखी, तो उन्होंने इसे अपने व्यवसाय के तौर पर शुरू करने का फैसला लिया, जहां लोग बिना देखे ही टिकट खरीदने को तैयार थे. यहीं से उन्होंने फिल्म निर्माण में कदम रखा.

उन्होंने पहले ‘चित्रा’ सिनेमा हॉल का निर्माण कराया, जिसका उद्घाटन नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने किया था. इसके बाद 1931 में उन्होंने ‘न्यू थिएटर्स’ की स्थापना की, जो आने वाले दशकों में भारतीय सिनेमा की ताकत बना. शुरुआती कुछ फिल्में असफल रहीं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. ‘देवदास’, ‘चंडीदास’, और ‘भाग्य चक्र’ जैसी फिल्मों की सफलता ने उन्हें सिनेमा की दुनिया का बादशाह बना दिया. उन्होंने केवल फिल्में नहीं बनाईं, बल्कि तकनीक, कला और भारतीय संस्कृति के अद्भुत संगम का आंदोलन खड़ा किया.

बी. एन. सरकार का ‘न्यू थिएटर्स’ तकनीकी नवाचार, सांस्कृतिक योगदान और रचनात्मकता के तौर पर शिखर पर था, लेकिन 9 अगस्त 1940 को एक भीषण आग ने सबकुछ स्वाहा कर दिया. बी. एन. सरकार की इस सपनों की फैक्ट्री को राख में बदल दिया. जिस वक्त आग लगी, उस समय वे मोहन बागान और आर्यन क्लब के बीच फुटबॉल मैच देख रहे थे. इस दौरान किसी ने आकर उनके कान में स्टूडियो में आग लगने की खबर सुनाई. खबर सुनते ही वे तुरंत स्टूडियो की ओर भागे, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी. पूरा प्रोडक्शन जलकर खाक हो चुका था. दशकों की मेहनत तबाह हो चुकी थी.

इस भयानक क्षति के बाद भी बी. एन. सरकार ने हार नहीं मानी. उन्होंने दोबारा स्टूडियो खड़ा किया, युवा प्रतिभाओं को मौका दिया, और बिमल रॉय जैसे उभरते कलाकारों को मंच प्रदान किया. 1944 में ‘उदयेर पथे’ जैसी संवेदनशील और क्रांतिकारी फिल्म से उन्होंने एक नई शुरुआत की. वह 1951 में फिल्म इंक्वायरी कमेटी के सदस्य बने, जिसकी सिफारिशों से फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) का गठन हुआ. 28 नवंबर 1980 को उन्होंने अंतिम सांस ली.

पीके/केआर