कुल्लू, 9 मार्च . हर साल देशभर में होली का पर्व रंगों से मनाया जाता है, लेकिन कुल्लू की होली का अपना अलग महत्व है. यहां की होली परंपरानुसार बसंत पंचमी से शुरू हो जाती है और लगभग 40 दिनों तक मनाई जाती है. इस खास पर्व में भगवान रघुनाथ की विशेष भूमिका रहती है.
कुल्लू की होली के दौरान बैरागी समुदाय के लोग परंपरागत रूप से होली के इस महापर्व का आयोजन करते हैं. घाटी में रोजाना होली गायन का सिलसिला चलता है, जिसमें खासकर ब्रज की होली के गीत गाए जाते हैं. इन गीतों में भगवान रघुनाथ की महिमा का वर्णन किया जाता है और पूरी घाटी में एक अद्वितीय सांस्कृतिक माहौल बना रहता है. यहां की होली में गुलाल लगाकर परंपराओं का निर्वहन किया जाता है और लोग पारंपरिक रीति-रिवाजों का पालन करते हुए खुशी और उल्लास के साथ इस पर्व को मनाते हैं.
इतिहास की बात करें, तो कुल्लू जनपद में राजा जगत सिंह का शासनकाल वर्ष 1637 से 1662 तक रहा. इसी दौरान राजा ने अयोध्या से भगवान राम की मूर्ति को यहां लाकर कोढ़ से मुक्ति पाने का उपाय किया था. इसके साथ ही कुल्लू में वैष्णो पर्व मनाने की परंपरा भी शुरू हुई, जो आज तक चली आ रही है.
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू और नग्गर जैसे ऐतिहासिक स्थानों पर आज भी भगवान रघुनाथ की मूर्तियों के आसपास बैरागी समुदाय के लोगों की विशेष भूमिका देखी जाती है. बसंत पंचमी के दिन भगवान रघुनाथ की रथ यात्रा के बाद, बैरागी समुदाय के लोग डफली की धुनों पर होली के गीत गाने की परंपरा का निर्वहन शुरू कर देते हैं.
इन दिनों में बैरागी समुदाय के लोग भगवान रघुनाथ की मूर्ति के स्थानों पर जाकर डफली की धुनों पर ब्रज की भाषा में होली गीत गाते हैं. यह एक अनूठा सांस्कृतिक आयोजन होता है, जो न केवल धार्मिक भावनाओं को जागृत करता है, बल्कि क्षेत्रीय संस्कृति और परंपराओं का भी संरक्षण करता है. पारंपरिक गीतों के साथ-साथ कुल्लू और नग्गर के विभिन्न घरों में भी रोजाना होली के गीत गाए जाते हैं और गुलाल उड़ाया जाता है.
इस समुदाय के लोग अपने से बड़ों के मुंह और सिर में गुलाल नहीं लगाते. बल्कि वे रिश्तों की मर्यादाओं का सम्मान करते हुए बड़ों के चरणों में गुलाल फेंकते हैं और उनकी उम्र से बडे़ लोग छोटे व्यक्ति के सिर पर गुलाल फेंक कर आशीर्वाद प्रदान करते हैं, जबकि हम उम्र के लोग एक दूसरे के मुंह पर गुलाल लगाते हैं और इस उत्सव को मनाते हैं. ऐसे में बैरागी समुदाय के लोगों द्वारा मनाई जाने वाली यह होली रिश्तों की अहमियत से काफी मायने रखती है.
बचपन से इस आयोजन में शामिल हो रहे श्याम सुंदर महंत का कहना है कि कुल्लू जनपद की यह समृद्ध परंपरा है और यह यह बसंत पंचमी से शुरू हो जाती है. 17वीं शताब्दी में भगवान रघुनाथ के आगमन के बाद जो पर्व अयोध्या में मनाए जाते हैं, वे सब पर्व उसी तरह कुल्लू में मनाए जाते हैं. 40 दिनों तक इस पर्व को मनाया जाता है और होलाष्टक इसका उत्कर्ष रहता है. इन आठ दिनों में अब सभी बैरागी समुदाय के लोग भगवान रघुनाथ के मंदिर में जाकर गुलाल खेलते हैं.
वही एकादशी महंत का कहना है कि 40 दिनों तक घर-घर में बैरागी समुदाय के लोग होली मनाते हुए होली के गीत गाते है. होलाष्टक में डफ और जांझ की तर्ज पर होली के गीत गाए जाते हैं और उसी में भगवान रघुनाथ की पूजा होती है. यह सिलसिला होलिका दहन तक चलता है.
स्थानीय रेखा महंत ने बताया की 25 वर्षों से वे इस उत्सव में भाग ले रही हैं. यहां बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक सभी बड़ी शिदत से इस उत्सव को मनाते है. बच्चे बुजुर्गों के पैरो में और बड़े बुजुर्ग उनके सर पर गुलाल फेंकते है. इस उत्सव में ढोलक, हार्मोनियम जैसे वाद्य यंत्रो के स्थान पर डफ, मजीरा का इस्तेमाल किया जाता है. यहां गाए जाने वाली होली के गीत में भगवान राम, भगवान कृष्ण और भगवान शिव का ही वर्णन किया जाता है.
–
एकेएस/