‘टूटा है गाबा का घमंड’ पर राजदान ने कहा : ‘वो शब्द मेरी ज़ुबान पर अपने आप आ गए थे’

नई दिल्ली, 14 दिसंबर . कमेंट्री से जुड़ा आपका सबसे पसंदीदा पल कौन सा है? क्या वो बहुत अच्छी कमेंट्री की वजह से है या वो एक ऐसी कमेंट्री है जो एक बहुत अच्छे पल के ऊपर की गई है? कभी कभी कोई पल इतना ख़ास होता है कि बयां करने के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं. रवि शास्त्री जब यह कह रहे थे, “धोनी फ़िनिशेस ऑफ़ इन स्टाइल”, तब वह आपको कोई ऐसी बात नहीं बता रहे थे जो आपको पहले से पता नहीं हो. लेकिन वो पल ही इतना ख़ास था कि उससे जुड़ी आवाज़ भी ख़ास हो गई.

हालांकि कभी-कभी कोई कमेंटेटर अलग स्तर पर भी चला जाता है. 19 जनवरी, 2021 को गाबा में विवेक राज़दान ने कुछ वैसा ही किया, जब ऋषभ पंत ने जॉश हेज़लवुड की गेंद पर डाउन द ग्राउंड ड्राइव करते हुए टेस्ट क्रिकेट के ऐतिहासिक पलटवार की पटकथा के अंतिम शब्द लिखे. अगर आपने यह मैच हिंदी में देखा होगा, तब, जब गेंद लॉन्ग ऑफ़ सीमारेखा पर गई थी तब आपने कुछ ऐसा सुना होगा, “टूटा है गाबा का घमंड.”

32 वर्ष और 31 टेस्ट से ऑस्ट्रेलिया को गाबा में कोई भी टीम नहीं हरा पाई थी. इससे पहले सिडनी में जब ऑस्ट्रेलिया छठे विकेट की साझेदारी के चलते भारत पर बढ़त नहीं बना पाई थी तब ऑस्ट्रेलियाई कप्तान टिम पेन ने हताश होकर कहा था, “गाबा में मिलते हैं.”

राज़दान बताते हैं कि उनकी ज़ुबान पर यह शब्द अपने आप आए थे, जो कि पिछले कुछ सप्ताह से पनप रही तमाम भावनाओं का परिणाम था. एडिलेड में 36 ऑल आउट के बाद मेलबर्न में वापसी, सिडनी में ड्रॉ और चोट से जूझ रहा भारतीय गेंदबाज़ी आक्रमण.

राज़दान बताते हैं, “हर दिन कुछ अलग घटित हो रहा था. हर बार कोई नया खिलाड़ी सामने से ज़िम्मेदारी लेते हुए प्रदर्शन कर रहा था. तो इसलिए यह सारी भावनाएं लगातार पनप रही थीं. हम टेस्ट के पांचवें दिन तक पहुंचे तब 300 से अधिक रनों की दरकार थी और उस टीम के ख़िलाफ़ काफ़ी कुछ कहा जा रहा था. चीज़ें इस तरह घटित हो रही थीं जैसे हम किसी दूसरे ग्रह पर रह रहे हों और उस दौरान पूरा विश्व कोरोना महामारी की चपेट में था. तो यह सारी चीज़ें भी उन भावनाओं में शामिल थीं क्योंकि लोग तरह-तरह की परेशानियों से जूझ रहे थे और तब पता नहीं था कि कब क्या हो जाए. इस तरह के वातावरण में जो इन लोगों ने (भारतीय टीम) किया, वह अविश्वसनीय था.

“मुझे भाग्य में बहुत विश्वास है और मैं इस बात के लिए बहुत आभारी हूं कि मैं उस पल को अपने शब्दों में बयां कर रहा था और भगवान की कृपा से वो शब्द मेरी ज़ुबान पर आ गए. वो सिर्फ़ शब्द नहीं थे बल्कि जज़्बात थे.”

इन शब्दों के कुछ ही देर बाद राज़दान को एक और अविस्मरणीय पंक्ति कहनी थी. अब यह सोचना मुश्किल है लेकिन पंत ने वो दौरा प्लेइंग XI से बाहर रहकर शुरू किया था क्योंकि टेस्ट में ऋद्धिमान साहा को विकेटकीपर के रूप में प्राथमिकता मिल रही थी.

जब पंत जीत का जश्न मना रहे थे तब राज़दान ने कहा, “खूबियां भी मुझमें, खामियां भी मुझमें, ढूंढने वाले तू सोच, चाहिए क्या मुझमें?”

विवेक राज़दान ने बताया कि उनके भीतर कमेंट्री का शायराना अंदाज़ कैसे आया,इस तरह की पंक्ति बहुत हद तक राज़दान द्वारा दशकों तक किए गए काम को दर्शाती है. वह बिना किसी हिचकिचाहट के अंग्रेज़ी बोलते हैं जो कि दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल से प्राप्त शिक्षा को भी दर्शाता है, जिसके पूर्व छात्रों में शाहरुख़ ख़ान और राहुल गांधी शामिल हैं. बतौर तेज़ गेंदबाज़ राज़दान का करियर जब समाप्त हुआ था, तब शायद उन्होंने ख़ुद भी नहीं सोचा होगा कि वह हिंदी कमेंट्री का रुख़ अख़्तियार करेंगे.

राज़दान ने कहा, “मैं एक कश्मीरी पंडित हूं और हिंदी मेरी मातृभाषा है. मेरी मां उत्तर प्रदेश के लखनऊ से आती हैं. जब मैं बच्चा था तो वो कुछ इस तरह की पंक्ति मुझसे कहा करती थीं, ‘दूसरों को नसीहत, आप मियां फ़ज़ीहत’, और मैं हमेशा इन पंक्तियों को काफ़ी उत्सुकता से सुनता था.”

“जब मैं बड़ा हुआ तब मुझे बिल्कुल भी नहीं पता था कि मैं इस क्षेत्र में काम करूंगा. जब मैंने हिंदी में कमेंट्री करना शुरू किया तब मैंने अपनी मां से बात करना शुरू किया और उनसे वो सभी पंक्तियां बोलने के लिए कहने लगा, जो वह मुझे बचपन में सुनाया करती थीं.”

“और फिर मैंने मिर्ज़ा ग़ालिब, (अलामा) इक़बाल जैसे तमाम शायरों को पढ़ना शुरू किया. जिस बात ने मुझे सबसे ज़्यादा आकर्षित किया वो कुछ पंक्तियां थी, जिनका अलग अलग भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए उपयोग किया जाता है. मैंने सोचा कि मैं इसका अपने खेल और कमेंट्री में कैसे उपयोग कर सकता हूं? और यह असली चुनौती थी. तो इसलिए मुझे गहराई से पढ़ना पढ़ा और अपने हिसाब से पंक्तियां गढ़नी पड़ीं. जब आप पढ़ना शुरू करते हैं और लगातार पंक्तियों का उपयोग करते हैं तब वो पंक्तियां आपको याद रहने लग जाती हैं. और तब आपको पता होता है कि किस पंक्ति को कहने का सही समय कौन सा है.”

हालांकि राज़दान की सबसे प्रसिद्ध पंक्ति ने अविश्वसनीय यात्रा की है. इसी साल गाबा में ऑस्ट्रेलिया को हराने में अहम भूमिका निभाने वाले वेस्टइंडीज़ के शमार जोसेफ़ ने इस पंक्ति को अपनी आवाज़ दी, जो ब्रिसबेन में ऑस्ट्रेलिया के कम होते ओहदे का सूचक है और अब यह ऑस्ट्रेलिया के लिए घरेलू सीज़न के अंत के लिए पसंदीदा वेन्यू भी नहीं है.

इस समय एक और गाबा टेस्ट खेला जा रहा है और एक चीज़ तय है. ऑस्ट्रेलिया जीते या हारे, घमंड टूट चुका है.

आरआर/