गुरुग्राम, 15 नवंबर . हरियाणा के गुरुग्राम में एसजीटी यूनिवर्सिटी में ‘विजन फॉर विकसित भारत’ को लेकर तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि देश के लोगों की समृद्धि के लिए विकसित भारत का साकार करना जरूरी है.
कार्यशाला में एक हजार शोधकर्ताओं ने भाग लिया. इसरो के निदेशक डॉ. एस. सोमनाथ ने उन्हें भारत के विकास की राह पर चलने के गुर बताए. उन्होंने ‘विजन फार विकसित भारत’ को लेकर देश भर में चलाए जा रहे अभियानों की जानकारी दी.
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आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, “किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं. किसी भी वस्तु स्थिति को समझने के लिए हमें दोनों ही पहलुओं पर विचार विमर्श करना चाहिए.”
उन्होंने कहा कि हमें अपने लोगों के समृद्ध भविष्य के लिए भारत को विकसित राष्ट्र का स्वरूप देना है.
मोहन भागवत ने कहा, “विकास और पर्यावरण की समस्याएं आज के समय में एक जटिल और विवादास्पद मुद्दा बन चुकी हैं. दोनों के बीच संतुलन बनाना एक बड़ी चुनौती है. विकास का मतलब है, मानव समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए प्रौद्योगिकी, उद्योग, और संसाधनों का इस्तेमाल करना, जबकि पर्यावरण की रक्षा का अर्थ है प्राकृतिक संसाधनों का संयमित और सतत उपयोग करना, ताकि प्राकृतिक संतुलन बना रहे. दोनों एक-दूसरे से टकराते हुए दिखते हैं, क्योंकि विकास के नाम पर पर्यावरण की उपेक्षा की जाती है और इसके परिणामस्वरूप प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की हानि जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं.”
उन्होंने कहा कि यह विवाद इस प्रश्न पर आधारित है कि क्या हम विकास की राह पर चलते हुए पर्यावरण को नजरअंदाज कर सकते हैं, या फिर हमें विकास को सीमित करके प्रकृति का संरक्षण करना चाहिए. मानव जीवन की आवश्यकता है कि वह संसाधनों का अधिक से अधिक उपयोग करे, लेकिन इस प्रक्रिया में यह जरूरी नहीं कि वह केवल अपने ही हितों के बारे में सोचे. विकास का मतलब सिर्फ आर्थिक और भौतिक संपन्नता नहीं होना चाहिए, जीवन की गुणवत्ता, सामाजिक कल्याण और स्थिरता को भी ध्यान में रखना चाहिए.
उन्होंने कहा, “विकास के लिए लोग अपने-अपने प्रयासों में लगे रहते हैं. वे अपनी पूरी कोशिश करते हैं, ताकि अपने जीवन स्तर को ऊंचा कर सकें, अधिक अवसरों की तलाश में रहते हैं. लेकिन, यह वास्तविकता है कि जब विकास के प्रयासों के फलस्वरूप पूरी तरह से सफलता नहीं मिलती, तो लोगों का उत्साह कम होने लगता है. लोग यह सोचने लगते हैं कि विकास के प्रयास उनके लिए निरर्थक हो गए हैं, या फिर यह समझने लगते हैं कि यदि उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की है तो उन्हें भी अपने प्रयासों का सही दिशा में पुनर्निर्देशन करना चाहिए.”
उन्होंने कहा, “यह स्थिति एक भटकाव की तरह होती है, जहां लोग यह नहीं समझ पाते कि वे किस दिशा में चलें. विकास और पर्यावरण दोनों का एक साथ संतुलन बनाना एक कठिन कार्य है, और इसके लिए एक ठोस दृष्टिकोण और योजना की आवश्यकता है. जब तक यह बात स्पष्ट नहीं होती कि इन दोनों को किस तरह समन्वित किया जाए, तब तक यह मुद्दा टलता रहेगा और हल नहीं होगा.”
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एसएचके/एकेजे