मदन लाल खुराना : राजनीति के उतार-चढ़ाव में भी जिनका सफर ‘अटल’ रहा

नई दिल्ली, 14 अक्टूबर . मदन लाल खुराना का नाम भारतीय राजनीति, खासकर दिल्ली की राजनीति में अहम रहा है. विभाजन के दौरान पाकिस्तान से विस्थापित हुए एक परिवार के सदस्य के रूप में उनका जन्म और पालन-पोषण दिल्ली में हुआ था. 15 अक्टूबर 1936 को मौजूदा पाकिस्तान के फैसलाबाद में जन्में मदन लाल खुराना को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहार वाजपेयी का खास सिपहसालार माना जाता था.

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इकोनॉमिक्स में मास्टर की पढ़ाई के दौरान छात्र राजनीति में प्रवेश के साथ उन्होंने सार्वजनिक जीवन की ओर अपना कदम बढ़ाया था. इसी समय उन्होंने संघ की विचारधारा को गहराई से अपनाया और विद्यार्थी परिषद और जनसंघ में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हुए. इस दौरान उनका सफर न तो साधारण था न ही आसान. शुरुआती दिनों में गुजारे के लिए उन्होंने संघ संचालित बाल भारती स्कूल में अध्यापन किया. आगे भी साइड में अध्यापन का कार्य करते रहे.

दिल्ली के बाहरी इलाकों से आकर बसे पंजाबियों और व्यापारियों के बीच उनकी लोकप्रियता ने इस समुदाय के बीच जनसंघ को भी काफी मजबूत किया. इसके पीछे मदनलाल खुराना के अलावा विजय कुमार मल्होत्रा और केदारनाथ साहनी का भी उल्लेखनीय योगदान था. 1967 में पार्षद बनने से लेकर 1993 में दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री बनने तक, खुराना का सफर कई चुनौतियों से भरा रहा. उनके निडर और बेबाक नेतृत्व के कारण उन्हें ‘दिल्ली का शेर’ का खिताब मिला था. जब उनका निधन हुआ था तब तत्कालीन भाजपा महासचिव कुलजीत सिंह चहल ने खुराना को श्रद्धांजलि देते हुए यही कहा था.

हालांकि व्यक्तित्व का यह ‘रौब’ खुराना पर स्वयं भी भारी पड़ा था. दिल्ली की राजनीति के अलावा खुराना राष्ट्रीय राजनीति में भी सक्रिय थे. वह इस दौरान अटल बिहारी वाजपेयी के करीबी सहयोगी रहे और भाजपा-अकाली दल गठबंधन तैयार करने में भी अहम भूमिका निभाई. यहां तक कि केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में पर्यटन मंत्री के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएं दी थी. साल 2004 में वह राजस्थान में राज्यपाल भी रहे, भले ही कुछ समय तक. खुराना के राजनीतिक करियर की इन ऊंचाइयों में अटल बिहारी के मजबूत समर्थन का बड़ा योगदान था.

राज्यपाल पद के बाद जब वह कुछ महीनों में वापस लौटे तब अटल पीएम नहीं थे और लालकृष्ण आडवाणी के हाथ में संगठन की कमान थी. लेकिन खुराना ने आडवाणी के नेतृत्व पर सवाल उठाया था. यह खुराना के राजनीतिक जीवन का बड़ा उथल-पुथल दौर था. गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को लेकर भी उनकी सोच स्पष्ट लेकिन पार्टी लाइन से हटकर थी. उनका मानना था अगर गुजरात दंगों के दाग को धोना है तो मोदी को मुख्यमंत्री पद छोड़ देना चाहिए. ऐसी अनुशासनहीनता के चलते उनको निलंबन झेलना पड़ा था.

लेकिन बाद में उन्होंने माफी मांगी और पार्टी में वापसी हुई. हालांकि तब तक चीजें पहले जैसी नहीं रही थी. इन तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद एक चीज स्थिर रही, वह थी मदन लाल खुराना और अटल बिहारी वाजपेयी के खास रिश्ते. यह भी एक संयोग ही था कि 2018 में 82 वर्ष की उम्र में, अटल बिहारी वाजपेयी की मौत के दो महीने बाद ही खुराना ने दुनिया को अलविदा कह दिया था.

एएस/