रानी दुर्गावती : अतीत का गौरव और वर्तमानसमय की आदर्श

नई दिल्ली, 5 अक्टूबर . 5 अक्टूबर को रानी दुर्गावती का 500वां जन्मदिन है. उसका प्रेरक स्मरण इतने वर्षों के पश्चात भी मन को गौरवान्वित करता है. विद्यार्थी थे तो एक गीत कई बार गाया था – ‘दुर्गावती जब रण में निकली, हाथों में थी तलवारे दो, धरती कांपी आकाश हिला जब हिलने लगी तलवारें दो.’ इस गीत के बोल आज भी गाने का मन करता है.

रानी दुर्गावती न केवल गोण्ड जनजाति की अपितु संपूर्ण भारत की आदर्श थीं. जिनका चरित्र कहता है कि नारी अबला नहीं सबला है. वर्तमान में हम लव-जिहाद के इतने सारे उदाहरण सुनते हैं तो मन में एक विचार आता है कि यह संदेश वर्तमान की युवतियों के मन में दृढ़ होना चाहिए. आज के युग में रानी युवतियों की आदर्श होनी चाहिए.

5 अक्टूबर 1524 को महोबा राजा किर्ति सिंह के घर में दुर्गावती का जन्म हुआ. नवरात्रि का उत्सव चल रहा था. अष्टमी का दिन था, तो उसका नाम दुर्गा रखा गया. बाल्यकाल में ही पिता ने उसे शस्त्र चलाना सिखाया और अपने कौशल के कारण दुर्गावती कुछ दिनों में शस्त्र चलाने मेें प्रवीण हो गईं. उनकी कीर्ती आसपास के क्षेत्र में फैल गई. गोंडवाना क्षेत्र के पराक्रमी राजा वीर दलपत शाह के पास दुर्गावती के संस्कारों के साथ-साथ पराक्रम की बातें भी पहुंच गई. दलपत शाह भी दिखने में सुन्दर तथा पराक्रमी राजा थे. दुर्गावती को भी राज दलपत शाह के पराक्रम के बारे में समाचार मिले ही थे. विवाह का जब प्रस्ताव आया तो उन्हें बहुत हर्ष हुआ. परिवार जनों की सहमति से सिंगोरगढ़ में 1544 में गोण्डी परम्परानुसार दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ. 1545 में उनके यहां एक पुत्ररत्न का जन्म हुआ. सर्वत्र आनंद छा गया. पुत्र का नाम रखा वीर नारायण सिंह.

विधि का विधान भी देखो कैसा होता है! राजघराने में सुख-समृद्धि, आनंद अधिक दिनों तक नहीं रहा. दो वर्ष के पश्चात गोंडवाना के बावनगढ के प्रतापी राजा वीर दलपत शाह की अचानक मृत्यु हो गई और रानी दुर्गावती विधवा हो गईं. परिवार पर आए इस संकट के कारण सर्वत्र दुःख का वातावरण छा गया. इस संकट की घड़ी में भी रानी ने बड़ी हिम्मत के साथ काम लिया. अपना धैर्य नहीं खोया. अब बड़ी जिम्मेवारी राजकाज चलाने की थी. पति के पीछे सती जाने के बदले रानी ने विधवा रहते हुए भविष्य को संवारने का काम किया. प्रजा ने एक प्रजावत्सल माँ का रूप देखा. आदर्श राजकाज के लिए इतिहास में जिन राज्य शासनों का उल्लेख मिलता है उसमें रानी दुर्गावती के शासन का भी उल्लेख है.

रानी ने जब राज शासन संभाला तो उसकी न्याय व्यवस्था, कर प्रणाली, लोक कल्याणकारी योजनाएं, कृषि एवं जल प्रबंधन, सभी अध्ययन करने योग्य है. यदि किसी व्यक्ति को इन विषयों पर शोध करना है तो उसने रानी दुर्गावती के शासन पर शोध अवश्य करना चाहिए. प्रजा की सुखाकारी के लिए रानी सदैव प्रयत्नशील थी. आर्थिक सम्पन्नता कैसी थी? इसका यदि विचार करते है तो रानी दुर्गावती के शासन में प्रजा को सोने की मुद्राओं में कर देने की योजना भी थी. हाथी का राज्य में भ्रमण और उसके माध्यम से कर वसूली होती थी. किसी व्यक्ति की कर देने की क्षमता नहीं है, व्यक्ति निर्धन है तो उस पर कर देने के बारे में शक्ति नहीं थी. ऐसा कह सकते है कि निर्धन और श्रीमंत दोनों प्रकार के व्यक्ति के बारे में ध्यान रखा जाता था.

रानी का अपने राज्य की कृषि व्यवस्था के बारे में बहुत ध्यान था. किसानों के प्रति रानी का रवैया संवेदनशील रहा. पानी के बारे में भी कई योजनाएं बनी. उस समय बने तालाब जैसे आधार ताल, रानी ताल को हम आज भी जबलपुर एवं आसपास के क्षेत्र में देख सकते है. संक्षेप में कहे तो प्रजा की सुखाकारी के लिए रानी ने बहुत काम किए. शासन व्यवस्था में भी उसकी कुशलता सुनकर किसी भी व्यक्ति के मन में गौरव की भावना जगेगी.

कृषि-पानी-व्यापार-न्याय की तरह राज्य की सुरक्षा के बारे में भी रानी ने बहुत ध्यान दिया. युद्ध के मैदान में रानी स्वयं सेना का नेतृत्व करती थीं. उसकी सेना में पैदल सेना, घुड़सवारो के साथ हाथी का दल भी रहता था. सेना में एक महिलाओं का भी दल रहा करता था. अपने राज्य की युवतियों को युद्ध कौशल का प्रशिक्षण देने की वह आग्रही थीं. रानी ने बाल्यकाल की सखी रामचेरी को एक दल का नेतृत्व सौंपा था. आज भी जबलपुर में एक चेरी ताल है जो इसी रामचेरी के स्मृति में बना था.

रानी के राज्य की कीर्ती चहुदिश फैल रही थी. दिल्ली में अकबर के दरबार में भी रानी के पराक्रम की चर्चा सुनने को मिली. अकबर ने आक्रमण की योजना बनाई. सूबेदार आसफ खां ने सोने का पिंजरा लेकर रानी के दरबार में दूत को भेजा. संकेत स्पष्ट था. रानी ने भी शत्रु को उसी की भाषा में उत्तर दिया और सोने का चरखा और रूई देकर अपनी मनसा प्रगट की.

महाराणा प्रताप ने अकबर के प्रस्ताव का अस्वीकार किया और जंगल-पहाड़ों में रहना पसंद किया यह तो हमने इतिहास में पढ़ा होगा. वैसे ही रानी दुर्गावती ने भी संघर्ष करने का स्वीकार किया परन्तु मुस्लिम आक्रांताओं के प्रस्ताव का स्वीकार कभी नहीं किया. इसी के चलते इतिहास ने एक स्वाभामानी व्यक्तित्व रानी दुर्गावती के रूप में देखा.

रानी ने मुस्लिम आक्रांताओं को एक से अधिक बार युद्ध के मैदान में धूल चटाई थी. अपने पराक्रम के बल पर और सेना का कुशल नेतृत्व करते हुए उसने कई बार विजय प्राप्त की थी. परन्तु जब मुस्लिम सेना का बल अधिक था, उसके पास तोपें भी थी और रानी ने अपनी सेना के नायकों, साथियों को युद्ध भूमि में गवाया तो वह संकट में फस गई. सिंगोर गढ के आसपास के क्षेत्र में मुस्लिम सेना को घेरने के प्रयास किए थे.

रात के समय सेना जब घाटी में विश्राम कर रही थी तो मुस्लिमों ने अचानक हमला कर दिया. रानी के सैनिकों ने पराक्रम का परिचय दिया. रानी स्वयं भी दो हाथों में तलवार लेकर बहुत बहादुरी के साथ लढ़ रही थीं. उनका वह रूप मानो रणचंडी का रूप था और एक तीर अचानक उनकी एक आँख में लगा. इसके बाद एक और तीर दूसरी आँख पर जब लगा तो रानी गिर पड़ीं. उसे अपनी पराजय दिख रही थी पर अपना शरीर शत्रु सेना के हाथ न लगे इस विचार से अत्यंत विश्वासपात्र सैनिक को अपने पर वार करने को कहा परन्तु वह ऐसी हिम्मत नहीं कर सका. तब जाकर रानी ने स्वयं ही अपने पर वार कर वीरगति को प्राप्त करने का निर्णय लिया.

24 जून 1564 को एक वीरांगना ने अपने प्राण न्योछावर कर सम्पूर्ण भारत को संदेश दिया कि शत्रु के साथ लड़ते-लड़ते वीरगति प्राप्त करना स्वीकार है पर शरणागति कभी भी नहीं हो सकती.

(लेखक वनवासी कल्याण केंद्र के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख हैं.)

एएस/