इंदिरा गांधी के करीबी श्रीकांत वर्मा, जिसने लेखक से राजनेता बनने तक का किया था सफर तय

नई दिल्ली, 17 सितंबर . “मैंने अपनी कविता में लिखा है, मैं अब घर जाना चाहता हूं, लेकिन घर लौटना नामुकिन है, क्योंकि घर कहीं नहीं है”, ये पक्तियां हैं हिंदी साहित्य के मशहूर साहित्यकार श्रीकांत वर्मा की. जो न केवल एक कवि थे बल्कि वह मशहूर कथाकार, गीतकार, समीक्षक और राजनीतिज्ञ भी थे.

श्रीकांत वर्मा की अपने दौर के उन साहित्यकारों में गिनती होती थी, जो न सिर्फ समाज के मुद्दों पर लिखते थे बल्कि वह इंसानियत को भी अपनी कविताओं के जरिए रू-ब-रू कराने का काम करते थे. श्रीकांत अपनी एक कविता में लिखते हैं, “जब इंसान अपने दर्द को ढो सकने में असमर्थ हो जाता है, तब उसे एक कवि की जरूरत होती है, जो उसके दर्द को ढोए अन्यथा वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेगा.” यही नहीं, उनकी कविताओं में सवाल को पूछने का भी एक अलग नजरिया होता है. वह लिखते हैं, “जब तक प्रश्न है, तभी तक साहित्य है”

18 सितंबर 1931 को छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में जन्मे श्रीकांत वर्मा एक समृद्ध परिवार से आते थे. पिता के वकील होने के कारण उन्हें शुरुआती शिक्षा अच्छी जगह से मिली. हालांकि, जब वह बड़े हुए तो घर की आर्थिक स्थिति भी बिगड़ी और इसके बाद उन्होंने स्कूल शिक्षक की नौकरी शुरू कर दी. परिवार में सबसे बड़े होने की वजह से उन पर सारी जिम्मेदारी आ गई.

तभी उनकी जिंदगी में हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की एंट्री हुई. श्रीकांत वर्मा ने उनकी प्रेरणा से बिलासपुर में पत्रिका ‘नयी दिशा’ का संपादन करना शुरू किया. इसके बाद वह दिल्ली चले आए और अलग-अलग पत्रिकाओं में लगभग एक दशक तक पत्रकार के रूप में काम किया. इसी दौरान उनकी किस्मत का रूख पलटा और राजनीति में एंट्री मिली. बाद के समय में श्रीकांत वर्मा कांग्रेस से जुड़ गए और वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काफी करीब आ गए. उन्हें कांग्रेस का महासचिव बनाया गय. इसके बाद उन्हें 1976 में मध्य प्रदेश से राज्यसभा के सांसद के तौर पर चुना गया. राजीव गांधी के शासन काल में उन्हें 1985 में कांग्रेस महासचिव के पद से हटा दिया गया.

राजनीति से जुड़े होने के साथ ही उन्होंने साहित्य का भी साथ नहीं छोड़ा. उन्होंने पचास के दशक में कवि के तौर पर भी खुद को स्थापित किया. उन्होंने “भटका मेघ”, “माया दर्पण”, “दिनारम्भ”, “जलसाघर”, “मगध”, “गरुड़ किसने देखा है” जैसे काव्य लिखे. इसके अलावा उन्होंने “झाड़ी”, “संवाद”, “घर”, “ठंड” और “अरथी” समेत कई कहानी संग्रह लिखे. साथ ही “दूसरी बार”, “अश्वत्थ” और “ब्यूक” उपन्यास भी उन्हीं की देन है.

हिंदी साहित्य में योगदान के लिए श्रीकांत वर्मा को कई पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया. उन्हें साल 1973 में मध्य प्रदेश सरकार का ‘तुलसी सम्मान’, 1984 में ‘आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार’, 1981 में ‘शिखर सम्मान’, 1984 में कविता और राष्ट्रीय एकता के लिए केरल सरकार का ‘कुमारन् आशान’ राष्ट्रीय पुरस्कार और ‘मगध’ कविता संग्रह के लिए उन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया.

अपनी जिंदगी के अंतिम दौर में उन्हें कई बीमारियों का सामना करना पड़ा. वह कैंसर का इलाज कराने के लिए अमेरिका भी गए. 26 मई, 1986 को न्यूयार्क में उन्होंने अंतिम सांस ली.

एफएम/जीकेटी