विश्व बांस दिवस : मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक गहरा रिश्ता

नई दिल्ली, 17 सितंबर . बांस एक ऐसा पेड़ है, जिसका इस्तेमाल घर बनाने से लेकर घर की साज-सज्जा तक में होती है. इसके अलावा भी बांस के कई उपयोग हैं, जो हमारे दैनिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं. हर साल 18 सितंबर को ‘विश्व बांस दिवस’ का आयोजन किया जाता है. बांस को गरीब आदमी की लकड़ी कहा जाता है. लेकिन, यह काफी कारगर और उपयोगी भी है.

बांस को लेकर जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल 18 सितंबर को ‘विश्व बांस दिवस’ मनाया जाता है. इसकी शुरुआत 2009 में बैकॉक में आयोजित ‘विश्व बांस कांग्रेस’ के दौरान वर्ल्ड बैंबू एसोसिएशन के तत्कालीन अध्यक्ष कामेश सलम ने की थी.

इस दिवस को बांस उद्योग को संरक्षण और प्रोत्साहन देने के लिए मनाया जाता है. बांस ग्रैमिनी कुल अर्थात घास कुल का पौधा है, यह प्राकृतिक रूप से उष्ण और उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाता है. खास बात यह है कि बांस का पौधा विषमतम परिस्थितियों में भी जीवित रह सकता है. यह गंभीर आपदाओं और भारी नुकसान के बाद भी फिर से उग आता है. बांस की लंबाई बौनी प्रजातियों में कुछ सेंटीमीटर से लेकर लंबी प्रजातियों में 30 मीटर तक होती है.

दरअसल, बांस प्राचीन समय से ही मानव सभ्यता का अभिन्न हिस्सा रहा है, जो मनुष्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके साथ जुड़ा हुआ है. औद्योगिक क्रांति के बाद बांस ने दुनिया भर के कल-कारखानों में खास पहचान बनाई. अगर भारत की बात करें तो यहां पर हर साल 1.35 करोड़ टन बांस का उत्पादन होता है. देश का उत्तर पूर्वी क्षेत्र बांस के उत्पादन में काफी समृद्ध है. यह इलाका देश का 65 प्रतिशत और विश्व के 20 प्रतिशत बांस का उत्पादन करता है.

भारत में कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में बांस प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं. भारत में बांस की 136 प्रजातियां पाई जाती हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि बांस ग्रामिनीई कुल का एक अत्यंत उपयोगी घास है, जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है. बांस शब्द का इस्तेमाल समूह के लिए किया जाता है, जिसमें कई जातियां शामिल होती हैं. भारत की अर्थव्यवस्था में बांस प्रमुख योगदान देता है. चीन के बाद भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांस उत्पादक देश है.

भारत में बांस के कई प्रकार पाए जाते हैं, जैसे बंबूसा, बम्बूसा टुल्डा, मेलोकाना बैसीफेरा. जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने में बांस काफी कारगर साबित होता है. बांस को सदाबहार वनों के साथ-साथ शुष्क क्षेत्र में भी उगाया जा सकता है. बांस की खेती बड़े पैमाने पर जल और मृदा प्रबंधन में भी सहायक है. बांस की पत्ती के मिट्टी में गिरने से प्राकृतिक खाद का निर्माण होता है, जिससे अन्य फसलों के उत्पादन में वृद्धि होती है.

कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक बांस की खेती ग्लोबल वार्मिंग से निपटने में मदद करती है. बांस दूसरे पौधों की तुलना में 33 प्रतिशत अधिक कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है. बांस की खेती किसानों के आर्थिक लाभ का भी बड़ा माध्यम है. बांस की खेती किसानों को आर्थिक रूप से मजबूत बना रही है. बांस का रखरखाव आसान होता है और पौधे तैयार होने के बाद लंबे समय तक आमदनी का जरिया भी मिलता है.

बांस की खेती शिल्पकारों और उद्योगों के लिए बहुत उपयोगी है. बांस से निर्मित फर्नीचर, चटाई और हस्तशिल्प की अन्य वस्तुओं की बाजार में बहुत मांग है. इस कारण बाजार में बांस की मांग बनी रहती है. इसका इस्तेमाल कागज बनाने में भी होता है. सबसे खास बात यह है कि प्लास्टिक का सबसे बेहतरीन विकल्प बांस होता है. बांस का उपयोग आयुर्वेद चिकित्सा और औषधि के रूप में भी किया जाता है. वहीं, इसका अचार भी काफी लाभदायक है.

विश्वभर में लगभग 2.5 बिलियन लोग बांस पर आर्थिक रूप से निर्भर हैं और इसका अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करीब 2.5 मिलियन डॉलर का है. भारत में बांस का उपयोग ज्यादातर अगरबत्ती के निर्माण में किया जाता है. अगरबत्ती के निर्माण के क्रम में अधिकतम 16% बांस का उपयोग बांस की छड़ें बनाने के लिए किया जाता है, जबकि शेष 84 प्रतिशत बांस पूरी तरह से बेकार हो जाता है. गोल बांस की छड़ियों के लिए बांस की लागत 25,000 रुपये से लेकर 40,000 रुपये प्रति मीट्रिक टन के दायरे में है, जबकि बांस की औसत लागत 4,000-5,000 रुपये प्रति मीट्रिक टन है.

भारत सरकार भी लगातार बांस की खेती को प्रोत्साहित और बढ़ावा दे रही है. बांस की खेती को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने अक्टूबर 2006 में ‘राष्ट्रीय बांस मिशन’ शुरू किया था. इसके बाद 25 अप्रैल 2018 को सरकार ने केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में पुनर्गठित ‘राष्ट्रीय बांस मिशन’ के लिए मंजूरी प्रदान की थी.

एसके/