एसबी मिश्रा : जिनकी कनाडा में की गई अद्भुत जीवाश्म खोज को 40 साल बाद मिली ‘पहचान’

नई दिल्ली, 17 सितंबर . कभी-कभी हमें अपनी जड़ों से दूर, अनजान सी धरती पर, कुछ ऐसा मिलता है जो सदियों पुराने रहस्यों को उजागर करता है. धरती के गर्भ में छिपी अनगिनत कहानियां हमें हमारे अतीत से जोड़ती हैं और इन्हीं कहानियों को खोजने का काम करते हैं भू-वैज्ञानिक. डॉक्टर शिव बालक मिश्रा एक ऐसे ही महान भारतीय भू-वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने कनाडा की धरती से ऐसे जीवाश्म खोजे थे, जो करोड़ों साल पुराने जीवन की झलक दिखाते हैं.

भूविज्ञान को अगर सरल शब्दों में समझें तो यह एक समय की यात्रा है, जिसमें हम धरती की पुरानी परतों को खोलते हैं और उसके अंदर छिपे उन रहस्यों को उजागर करते हैं. जैसे एक पुरातत्वविद् पुराने खंडहरों से इतिहास को उजागर करता है, वैसे ही एक भूविज्ञानी चट्टानों, पत्थरों, और जीवाश्मों के माध्यम से पृथ्वी के अरबों साल पुराने इतिहास को पढ़ता है. अपने ऐसे ही कार्यों के लिए एसबी मिश्रा को 18 सितंबर के दिन साल 2007 में खास सम्मान दिया गया था.

शिवा बालक मिश्रा जब अपने जीवन के तीसरे दशक में थे, तब उन्होंने एक बेहद पुराने जीवाश्म की अद्भुत खोज की थी उस समय वह कनाडा के मेमोरियल यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूफाउंडलैंड में ‘मास्टर ऑफ साइंस’ की पढ़ाई कर रहे थे. वह जीवाश्म 600 मिलियन वर्ष से भी अधिक पुराना था. जिसको उन्होंने पहली बार 1967 में खोजा था.

जीवाश्म समय में कैद जीवन के वे निशान हैं, जिन पर लाखों-करोड़ों साल पुरानी कहानियां लिखी हैं. जब कोई जीव मर जाता है, तो उसके अवशेष मिट्टी, रेत, या पानी में दब जाते हैं. समय के साथ ये अवशेष कठोर हो जाते हैं और पत्थर या खनिज का रूप ले लेते हैं. जीवाश्म हमें बताते हैं कि प्राचीन काल में धरती पर कैसे जीव रहते थे, वे कैसे दिखते थे और उनका जीवन कैसा था. एक तरह से, जीवाश्म हमें अतीत में झांकने का मौका देते हैं.

दिलचस्प बात है, तब एसबी मिश्रा को अपनी इस उपलब्धि की महानता के बारे में ज्यादा नहीं पता था. वह इस खोज के बाद कनाडा छोड़कर भारत में लौट आए थे. भारत में उन्होंने कॉलेज और विश्वविद्यालयों में पढ़ाना शुरू कर दिया था. इस दौरान वह उत्तरी अमेरिका में अपने दोस्तों से संपर्क में रहते थे और नियमित रूप से वैज्ञानिक पत्रिकाओं में योगदान देते थे, लेकिन उनके जीवन का उद्देश्य लगभग पूरी तरह बदल गया था.

आखिर जब 1967 की अपनी खोज के लिए उनको विशेष सम्मान मिला तो उन्होंने इस खोज के बारे में कुछ चीजें शेयर की थी. उन्हें यह सम्मान प्राप्त करने में लगभग 40 साल लग गए. 40 साल बाद इस जीवाश्म का नाम एसबी मिश्रा के नाम पर ‘फ्रैक्टोफ्यूसस मिश्राई’ रखा गया था. जिसमें बाद का शब्द ‘मिश्रा’ सरनेम से लिया गया है.

इस चीज के बारे में भारत में कम ही लोगों को जानकारी है. यह सम्मान खुद मिश्रा के लिए भी एक सरप्राइज था. उन्होंने तब बीबीसी के साथ एक इंटरव्यू में कहा था, “मुझे कनाडा छोड़े 37 साल हो गए, फिर भी उन्होंने जीवाश्म का नाम मेरे नाम पर रखा. मैं इस मान्यता से अभिभूत हूं. 1967 मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था. जीवाश्म नमूनों का अध्ययन करते हुए मुझे चट्टानों पर मछली और पत्ती जैसे निशान मिले थे. सबसे बात यह थी कि यह बहुकोशिकीय जीवों के जीवाश्म थे. इससे पहले एक कोशिकीय जीवों के जीवाश्म ही मिले थे. यह एक बड़ी खोज थी.”

1939 में देवरा में जन्मे एसबी मिश्रा का बचपन घोर गरीबी में बिता था. आसपास शिक्षा की सुविधा भी 12 किलोमीटर दूर थी. पक्की सड़कें नहीं होती थी. अधिकतर पैदल ही स्कूल जाना पड़ता था. क्लास 8 के बाद वह लखनऊ चले गए जहां पर बीएससी पूरी करने के बाद उन्होंने मास्टर डिग्री के लिए न्यूफाउंडलैंड जाने का फैसला किया था. इस दौरान उनके कुछ साथी भी विदेश में आगे की पढ़ाई के लिए जा रहे थे. यह बात 1966 की है, यानी जीवाश्म की उस ऐतिहासिक खोज से एक साल पहले की बात. 1967 में वह अपनी थीसिस पर काम करते समय मिस्टेकन पॉइंट नामक एक निर्जन क्षेत्र में इस जीवाश्म की खोज की थी.

तब इस उपलब्धि को सार्वजनिक तौर पर वह प्रशंसा नहीं मिली थी, जिसके वह हकदार थे. कनाडा में रहने के बावजूद उनको बचपन में ग्रामीण जीवन की कठिनाइयों की यादें सताती थी. ग्रामीण शिक्षा को बढ़ावा देने के मकसद से वह 1970 में भारत लौट आए थे. उन्होंने अपना सब कुछ छोड़कर सभी को शिक्षा देने के लिए भारतीय ग्रामीण विद्यालय की स्थापना की थी. भारतीय ग्रामीण विद्यालय को स्थापित हुए 50 वर्ष से अधिक हो गए हैं, और इस दौरान इसने लखनऊ, बाराबंकी और सीतापुर जिलों के गांवों में हजारों गरीब लोगों के जीवन को बदल दिया है.

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