नई दिल्ली, 13 सितंबर . भाषा महज संपर्क या संवाद का जरियाभर नहीं होता. भाषा तो हमेशा से विचारों की संवाहक रही है. यह किसी देश के संस्कार और संस्कृति का आधार भी होता है. चूंकि, किसी देश का संस्कार या संस्कृति महज सरकारें तय नहीं कर सकती. शायद यही वजह है कि हम हिंदी के भाषा के रूप में स्वीकार करने में भारत के कई कोने में हिचकिचाते रहे.
जबकि, सबको पता है कि हिंदी केवल एक भाषा ही नहीं है, एक संस्कृति और जीवन शैली की संरक्षक भी है. यानी हिंदी और हिंदुस्तान का संबंध वैसा ही है, जैसा एक मां और बेटे का होता है. हिंदी को दुनिया में तो पहचान मिल गई लेकिन यह अपनी ही सरजमीं पर उपेक्षा का शिकार रही है. वह कदम-कदम पर रूसवाईयां झेल रही है और यही वजह है कि वह राष्ट्रभाषा का अपना दर्जा पाने में अब तक कामयाब नहीं हो पाई है.
यूं तो सितंबर के महीने को हमने हिंदी के नाम कर दिया, लेकिन क्या कभी सोचा कि अपनी ही जमीन पर यह भाषा आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. वैसे भारत जैसे बड़े भूभाग वाले देश में कहा जाता है कि ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी’ यानी भारत में हर एक कोस पर पानी का स्वाद बदल जाता है और 4 कोस पर भाषा यानी वाणी या बोली बदल जाती है.
हमने हिंदी के प्रति जो रुग्णता दिखाई उसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यह रही कि हमने अंग्रेजी को एक मानक के रूप में स्थापित कर लिया. अंग्रेजी को बुद्धिमता से जोड़ दिया गया. हिंदी के प्रति रुग्णता तथा समूह में इसके प्रति असहजता ने इस भाषा को अपने ही परिचितों में अपरिचित बना दिया.
हिंदी उत्तर भारत की सीमा से निकलकर दक्षिण में छाने की कोशिश करती रही, लेकिन वहां तमिल, मराठी, मलयालम, तेलगु, कन्नड़ जैसी भाषाओं के बीच जाकर उसने दम तोड़ दिया. हिंदी के प्रति हम हिंदुस्तानियों में ही गर्व का बोध नहीं रहा, हमारे अंदर इस भाषा को लेकर उदासीनता व्याप्त है. इसके साथ ही आज की पीढ़ी में ‘हिंग्लिश’ की स्वीकार्यता ने भी इसको बड़ा आघात पहुंचाया है.
जबकि हिंदी तो वह भाषा रही है, जिसने अपने अन्य दूसरी भाषाओं के शब्दों को समेटकर अपने आप को समृद्ध बनाया है. इसके साथ ही हिंदी के शब्दों को भी कई भाषाओं ने ग्रहण किया है. हिंदी तो भाषाओं को छोड़िए बोलियों से भी शब्दों को ग्रहण करती रही है.
हिंदी इस समाज की आशा है और यह एक संस्कृति और जीवन शैली की संरक्षक भी है. लेकिन, आज हिंदी को जनभाषा के रूप में बताना 14 सितंबर के आयोजनों तक ही सीमित रह गया है. भारत की स्वाधीन चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली यह भाषा स्वतंत्रता प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी गहरी हीन भावना से ग्रस्त और उपेक्षित रही है. हिंदी तो अपने संक्रमण के दौर से ही कभी बाहर नहीं निकल पाई है.
दुनियाभर में 70 करोड़ से कहीं ज्यादा लोग हिंदी भाषा बोलते हैं. यह दुनिया में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. ऐसे में हमने ‘हिंदी दिवस’ के साथ दुनिया में इसके प्रसार के लिए 10 जनवरी को विश्व हिन्दी दिवस भी मनाना शुरू किया लेकिन, हिंदी को लेकर लोगों की सोच में बदलाव आज भी संभव नहीं हो पाया.
हिंदी के होते हुए आजादी के इतने सालों बाद भी हम बिना किसी राष्ट्रभाषा के अपना काम चला रहे हैं. इसके पीछे की वजह साफ है कि कोई भी भाषा तभी सशक्त होगी, जब हम इसमें रचनात्मक कल्पनाशीलता विकसित करेंगे. लेकिन, बचपन से ही हमें जब उस भाषा का बोध और संस्कार नहीं दिया गया तो हमारे लिए यह मानना असंभव हो जाता है कि हिंदी हमारे लिए कितनी जरूरी है. हम हिंदी के राष्ट्रभाषा ना बनने पर अफसोस तो जताते हैं, लेकिन घर में बच्चों से हिंदी बोलते हुए कतराते हैं. जब हम खुद इस भाषा को बोलते हुए गौरवान्वित महसूस नहीं करते हैं तो फिर भला घर के बाहर और समाज में हिंदी वह जगह कैसे बना सकती है?
14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा का दर्जा दिया गया. और, यह भी महज 15 साल के लिए, लेकिन आज तक हम इसमें सफल नहीं हो पाए. तब संविधान के निर्माताओं का मानना था कि इतने विशाल देश में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनने में समय लगेगा इसलिए इसे शुरू में राजभाषा बनाया गया. लेकिन, तब से यह राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने के लिए छटपटाती रही.
हालांकि यह तथ्य भी सही है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का बीड़ा जिन नेताओं ने उठाया था, वह गैर-हिंदी भाषी लोग थे. जिनमें महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सी. राजगोपालाचारी, सरदार पटेल और सुभाषचन्द्र बोस जैसे नाम शामिल हैं. लेकिन, आज अगर हिंदी दिवस मनाने की जरूरत आन पड़ी है तो निश्चित ही ये चिंता का विषय है क्योंकि किसी भी दिवस को तब मनाया जाता है जब वह किसी के लिए साल में एक बार आता है. हिंदी तो हमेशा से सतत प्रवाहशील रही है.
हिंदी की ताकत को कमतर आंका गया, जबकि हिंदी की ताकत वही है जो हिंदुस्तान की है. हम हिंदुस्तान को तो मजबूत करते चले गए, लेकिन हिंदी को राजभाषा का भी अधिकार दिला नहीं पाए, राष्ट्रभाषा तो खैर दूर की कौड़ी थी. हां, हमने हिंदी को संपर्क की भाषा या जन भाषा बनाने में जरूर सफलता पाई है. हिंदी में तो संस्कृत से लेकर पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और यहां तक उर्दू और इंग्लिश भी घुली हुई है. यानी यह उदार भाषा है. लेकिन, हमने अपनी भाषा के प्रति ही उदारता नहीं दिखाई है.
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जीकेटी/