नई दिल्ली, 9 सितंबर . भारत की आजादी के संघर्ष में कई महापुरुषों को प्राणों की आहुति देनी पड़ी. कई ने अंग्रेजों को ऐसा सबक सिखाया कि उनकी वीरगाथा आज भी गौरव के साथ याद की जाती है. इनमें से एक नाम सचिंद्रनाथ सान्याल का है. सचिंद्रनाथ और अंग्रेजों के बीच 9 सितंबर 1915 को ओडिशा (तब उड़ीसा) के काप्टेवाड़ा में संघर्ष हुआ था. जिसने कई क्रांतिकारियों को संदेश देने का काम किया था.
हालांकि, 9 सितंबर 1915 को सचिंद्रनाथ सान्याल और अंग्रेजों के बीच काप्टेवाड़ा में संघर्ष को लेकर विद्वानों के बीच मतभेद है. कई इतिहासकारों का दावा है कि तारीख सही नहीं है. इन सब तमाम दावों के बीच सचिंद्रनाथ सान्याल के संघर्ष और अंग्रेजों को सबक सिखाने के उनके हुनर के बारे में बात करना जरूरी है. 3 अप्रैल 1893 को वाराणसी में पैदा हुए सचिंद्रनाथ सान्याल को क्रांतिकारियों का शिक्षक माना जाता है.
सचिंद्रनाथ सान्याल ने पढ़ाई के दौरान ही साल 1908 में काशी के प्रथम क्रांतिकारी दल का गठन कर दिया था. सचिंद्रनाथ की 1913 में क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से मुलाकात हुई. कुछ समय बाद दोनों ने साथ मिलकर अंग्रेजों को सबक सिखाने का फैसला किया और अपने-अपने दल को मिला लिया. 1914 में पहले विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद सचिंद्रनाथ की सक्रियता बढ़ने लगी.
सचिंद्रनाथ कहते थे, “हमें क्रांतिकारी कहा गया. लेकिन, हम तो अपने देश के लिए जान कुर्बान करने वाले साधारण लोग थे.” इतिहासकारों की मानें तो रामप्रसाद बिस्मिल ने सचिंद्रनाथ और डॉ. जादूगोपाल मुखर्जी के साथ मिलकर 1924 में नई पार्टी का संविधान तैयार किया, जिसे ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ कहा गया. इसकी आधिकारिक शुरुआत 3 अक्टूबर 1924 को कानपुर में हुई.
कानपुर में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की शुरुआत के समय सान्याल अध्यक्ष और बिस्मिल शाहजहांपुर के जिला प्रभारी थे. रासबिहारी बोस ने सचिंद्रनाथ की असाधारण कर्म शक्ति, सरलता, तत्परता को समझा और उन्हें प्यार से ‘लट्टू’ कहकर बुलाते थे. दूसरे क्रांतिकारी साथियों ने सचिंद्रनाथ को ‘बारूद से भरा अनार’ का उपनाम दिया था, जो उनके लिए सही भी था.
सचिंद्रनाथ सान्याल और रासबिहारी बोस की दोस्ती की मिसाल दी जाती थी. दोनों नवंबर 1914 में एक बम परीक्षण के दौरान घायल हो गए. जब ठीक हुए तो एक बार फिर देश को आजाद कराने की अपनी योजना में जुट गए. 1914 में पहले विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजी हुकूमत उसमें उलझी थी. दूसरी तरफ सचिंद्रनाथ सान्याल ने इसे एक मौके के रूप में देखा और सैन्य विद्रोह के साथ स्वतंत्रता संग्राम के कार्य को आरंभ करने की तैयारी की.
इस विद्रोह को 21 फरवरी 1915 को शुरू करने की तैयारी की गई थी. लेकिन, उनकी प्लानिंग की भनक ब्रिटिश हुकूमत को लग गई. 26 जून 1915 को सचिंद्रनाथ सान्याल को गिरफ्तार किया गया और उन्हें अगले साल फरवरी 2016 में कालापानी की सजा सुनाई गई. उनके खिलाफ आजीवन कारावास और संपत्ति जब्त करने का आदेश दिया गया था. चार वर्षों तक अंडमान के सेलुलर जेल में रहने के बाद वह रिहा हुए.
सचिंद्रनाथ सान्याल ने अंडमान में कैदियों के प्रति किए जाने वाले अमानवीय व्यवहार की चर्चा कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज नेताओं से की थी. यहां तक कि उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर और अन्य कैदियों को छुड़ाने की कोशिश भी की थी. उन्होंने नागपुर में विनायक सावरकर के भाई डॉ. नारायण सावरकर से मुलाकात की थी. लेकिन, उनकी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गई. उन्हें अपने मिशन में सफलता नहीं मिल सकी.
इसके बाद सचिंद्रनाथ सान्याल ने ईंट भट्टे का काम किया. यहां से मन उचटा तो रेलवे में पहुंच गए. उनके अंदर क्रांतिकारी तेवर थे. एक बार फिर सचिंद्रनाथ सान्याल ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष शुरू किया. दिल्ली अधिवेशन में सचिंद्रनाथ सान्याल ने भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता का लक्ष्य और भविष्य में संपूर्ण एशिया को महासंघ बनाने का विचार रखा. इससे जुड़े पर्चे रंगून से लेकर पेशावर तक वितरित किए गए थे.
पर्चे के कारण फरवरी 1925 में सचिंद्रनाथ सान्याल को दो वर्ष की सजा हुई. जेल से रिहा हुए तो काकोरी कांड में नाम आया. एक बार फिर सचिंद्रनाथ सान्याल को काले पानी की सजा सुनाई गई. कुछ वर्ष बाद सान्याल रिहा होकर वापस घर पहुंचे. लेकिन, उन्हें हुकूमत ने घर में ही नजरबंद कर दिया था. आखिरकार, 7 फरवरी 1942 को महान क्रांतिकारी सचिंद्रनाथ सान्याल ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
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एबीएम/