बिटिया की बदलती दुनिया, माता-पिता के लिए चुनौतियां, क्या करें कि दूरियां और न बढ़ें

नई दिल्ली, 27 अगस्त . बेटियां भगवान का अनमोल उपहार होती हैं, लेकिन अक्सर माता-पिता के रूप में हम उनकी जरूरतों और भावनाओं को सही तरीके से नहीं समझ पाते. यही गलतफहमी हमारे और हमारी बेटियों के बीच दूरी बढ़ा देती है. यह जरूरी है कि हम अपनी बेटियों के साथ एक मजबूत और समझदारी भरा रिश्ता बनाएं, जो न केवल उनका आत्मविश्वास बढ़ाए बल्कि उन्हें जीवन के हर कदम पर हमारे साथ खड़ा महसूस कराए.

हर बच्चा अलग होता है, और हर बेटी की अपनी विशिष्ट जरूरतें होती हैं. कभी-कभी, वे अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त नहीं कर पाती, और माता-पिता के रूप में हमें उनके मनोविज्ञान को समझना होता है. उनकी जरूरतें सिर्फ भौतिक चीजों तक सीमित नहीं होतीं; उन्हें भावनात्मक समर्थन, समझ, और सच्चे संवाद की भी आवश्यकता होती है.

इन सब चीजों पर ने एनसीआर में ‘होप साइकोलॉजी एंड रिलेशनशिप काउंसलिंग सेंटर’ के काउंसलर विवेक वत्स से बातचीत की.

विवेक वत्स ने कहा, “अगर हम बच्चों के विकास की बात करें तो बेटियां स्वाभाविक तौर पर बेटों की तुलना में ज्यादा इमोशनल होती हैं. बेटियों के लिए मां का रोल सोशल डेवलपमेंट को लेकर होता है और पिता लॉजिकली ज्यादा इनपुट डाल पाते हैं. यानी एक बच्ची के व्यक्तित्व का इमोशनल पार्ट मां हैंडल करती है और और प्रैक्टिकल अप्रोच पिता की ओर से आता है. प्रैक्टिकल अप्रोच, यानी रोजमर्रा के जीवन में काम आने वाली स्किल्स, वह पिता की ओर से विकसित कराई जाती है.”

उन्होंने बेटियों की खासियत और जरूरत के बारे में बताते हुए कहा, “बेटियां छोटी उम्र से ही ‘लव और अटेंशन’ चाहती हैं. इस उम्र में भी वह लड़कों से थोड़ी अलग होती हैं. लड़कों के एग्रेसिव खेल की तुलना में बच्चियों के खेल रचनात्मक होते हैं. इस उम्र में लड़कियों के ऊपर सबसे ज्यादा फर्क पारिवारिक माहौल का पड़ता है. क्योंकि इस उम्र में एक बच्ची अपना अधिकतर समय परिवार के अंदर देता है. अगर बच्चे को डरा-धमकाकर रखा जाएगा, उसके साथ ज्यादा टोका-टाकी की जाएगी तो यह बच्चे के विकास को प्रभावित करेगा, उसके आत्मविश्वास का कम करेगा, कुछ भी करने से पहले बच्ची को लगेगा कि शायद में इसको गलत कर रही हूं.”

यह सब चीजें इस बात की ओर भी इशारा करती हैं कि बेटियों और पैरेंट्स के बीच में संवाद भी कम हो चुका है. ऐसी स्थिति से बचने के लिए जरूरी हैं कि माता-पिता अपनी बेटी की बातों को जरूर सुनें. संवाद किसी भी रिश्ते की नींव होती है. जब वे अपनी बात कहें, तो हमें उन्हें ध्यान से सुनना चाहिए, बिना किसी रुकावट या जजमेंट के. हालांकि कई बार पैरेंट्स यही पर पहली गलती कर जाते हैं.

इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए विवेक बताते हैं कि, “माता-पिता के तौर पर गलती हमसे यह होती कि हम बेटी को बात को सुनकर उसको सलाह या उपदेश पहले देना शुरू कर देते हैं. जबकि बेटी को ऐसे उपदेश से ज्यादा जरूरत है कि उनकी बातों को सुना जाए. अगर बच्ची की कोई बात सही भी करनी हो तो उसको अच्छे तरीके से करनी चाहिए. आपको बिटिया से बात करते हुए यह जरूर ध्यान में रखना है कि वह भविष्य में अपनी बात आपसे शेयर करेगी या नहीं. ज्यादा टोका-टाकी से बच्चे अगली बार अपनी बात माता-पिता से शेयर करना बंद कर देते हैं.”

इसलिए सुनना बड़ी अहम चीज है. बेटी को बिना किसी रुकावट के सुनें. उसे महसूस कराएं कि आप उसकी बातों को महत्व देते हैं. जब वह अपनी भावनाएं साझा करती है, तो उसे आश्वस्त करें कि आप उसके साथ हैं. बेटी की भावनात्मक जरूरत पूरी करना बेहद अहम है.

इसके महत्व के बारे में बताते हुए विवेक वत्स ने आगे कहा, “हर बेटी की अपनी एक भावनात्मक जरूरत होती है. यदि बचपन में यह इमोशनल जरूरत पूरी नहीं हो पाती तो किशोर अवस्था में बेटी अपनी वह जरूरतें किसी और माध्यम से पूरा करने की कोशिश करती है. जैसे, यदि एक बेटी और उसके पिता का रिश्ता बहुत अच्छा नहीं है तो वह अपने जीवन में आगे एक फादर फिगर को ढूंढने की कोशिश में रहती है. जरूरी नहीं कि उनकी यह खोज हमेशा उनको एक सही शख्स से ही मिलाती है.”

ऐसे में यह बड़ा अहम हो जाता है कि छोटी उम्र से ही हम अपनी बेटियों की भावनाओं और सोच को बिना जज किए समझें. उन्हें हर चीज में परफेक्ट होने का दबाव न डालें. यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि हर उम्र में उनकी जरूरतें बदलती रहती हैं. किशोरावस्था में वे अधिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता की चाह रखती हैं, और उन्हें स्पेस देने की आवश्यकता होती है.

विवेक वत्स ने आगे बताया, ” बेटियों की सुनने के बाद यह बहुत जरूरी है कि उनके साथ एक संवाद स्थापित किया जाए. इसके लिए पेरेंट्स को बेटी के साथ रोजाना 15-20 मिनट तक बैठकर बात करनी चाहिए. पैरेंट्स को यह जरूर समझना होगा कि बच्चे बहुत जिज्ञासू होते हैं. उनको हर चीज के बारे में जानने की इच्छा होती है. उनमें से कई चीजों को पेरेंट्स यह कहकर टाल देते हैं कि ये सब तुम्हारे मतलब का नहीं है. लेकिन इससे बच्ची की जिज्ञासा शांत होने की बजाए और बढ़ जाती है.”

ऐसी स्थिति में पेरेंट्स चाहें तो किसी प्रोफेशनल की भी सलाह ले सकते हैं कि उनको बच्चे की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए किस तरह से बात करनी चाहिए. आजकल की बेटियां तकनीक के साथ भी बड़ी हो रही हैं. हमें उनकी दुनिया को समझने की कोशिश करनी चाहिए, चाहे वह सोशल मीडिया हो या ऑनलाइन गेम्स. इससे हम उनके साथ एक बेहतर कनेक्शन बना सकते हैं. साथ ही, उन्हें नैतिकता और जिम्मेदारियों का भी महत्व समझाना चाहिए, ताकि वे एक सही दिशा में आगे बढ़ सकें. एक बार जब यह समझ और संवाद का पुल बना लिया जाता है, तब यह रिश्ता और भी मजबूत और अटूट हो जाता है.

एएस