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New Delhi, 26 नवंबर . संगीतकार उस्ताद सुल्तान खान का करियर केवल संगीत का नहीं था. यह एक सामाजिक लड़ाई थी. एक ऐसी लड़ाई जिसमें उन्होंने सारंगी को उसके सामाजिक पूर्वाग्रहों से मुक्त कराकर, एक शक्तिशाली एकल आवाज के रूप में वैश्विक मंच पर स्थापित किया.
उस्ताद सुल्तान खान की कला की नींव उनके सीकर घराने के कठोर प्रशिक्षण में निहित थी, जहां उनके दादा उस्ताद अजीम खान संगीतकार थे. पिता उस्ताद गुलाब खान से मिली प्रारंभिक तालीम ने उन्हें इतना तराशा कि मात्र 11 वर्ष की आयु में ही उन्होंने अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में अपना पहला एकल प्रदर्शन दिया. लेकिन उनकी सबसे बड़ी कलात्मक क्रांति थी ‘गायकी अंग’.
गायकी अंग का अर्थ था सारंगी पर मानव कंठ की भावनात्मक गहराई, उतार-चढ़ाव और सूक्ष्म अलंकरणों का हूबहू अनुकरण करना.
उन्होंने अपनी सारंगी को वह प्रतिष्ठा दिलाई जो केवल गायकों के लिए आरक्षित थी. उनकी सारंगी की धुन में ध्रुपद और ख्याल की भावनात्मक व्यापकता समाहित थी. उन्होंने सारंगी को उसके पारंपरिक बंधनों से आजाद किया और उसे एक स्वतंत्र, आत्म-अभिव्यक्ति करने वाले एकल वाद्य के रूप में स्थापित किया.
शास्त्रीय संगीत की सीमाओं को पार करते हुए, उस्ताद खान ने भारतीय फिल्म उद्योग और पॉप संगीत में सफलतापूर्वक प्रवेश किया. उनकी बहुमुखी प्रतिभा का प्रमाण 1999 की ब्लॉकबस्टर फिल्म हम दिल दे चुके सनम का गीत ‘अलबेला सजन आयो रे’ था, जिसे उन्होंने कविता कृष्णमूर्ति और शंकर महादेवन के साथ गाया था.
लेकिन, जिस सफलता ने उन्हें रातों-रात युवा संस्कृति का आइकन बना दिया, वह थी गायिका चित्रा के साथ उनका पॉप एल्बम ‘पिया बसंती’. यह एल्बम जबरदस्त हिट हुआ और सारंगी की धुनें India के युवाओं के बीच गूंज उठीं. इस एल्बम के लिए उन्हें एमटीवी इंटरनेशनल व्यूअर्स चॉइस अवार्ड से सम्मानित किया गया. यह पुरस्कार उनकी दोहरी विरासत का प्रतीक है. एक ओर पारंपरिक कला में उत्कृष्टता (पद्म भूषण), तो दूसरी ओर आधुनिक कला में सफलता (एमटीवी अवॉर्ड).
उस्ताद सुल्तान खान का सबसे प्रभावशाली योगदान उनके वैश्विक सहयोग में है. 1970 के दशक में जॉर्ज हैरिसन के साथ 65 संगीत समारोहों की यात्रा ने उन्हें पश्चिम में भारतीय संगीत के प्रसार का एक प्रमुख चेहरा बना दिया. उनकी कला ऑस्कर विजेता फिल्म गांधी (1984) और हीट एंड डस्ट जैसी हॉलीवुड फिल्मों में भी गूंजी.
उनकी कलात्मकता का चरम बिंदु 2000 के दशक में आया, जब उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक फ्यूजन समूह ‘तबला बीट साइंस’ में सारंगी वादक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. तबला वादक जाकिर हुसैन, कंपोजर बिल लासवेल और करश काले जैसे दिग्गजों के इस ‘सुपरग्रुप’ में, उस्ताद खान ने राग आधारित सारंगी को साइबर-टेक्नो और इलेक्ट्रॉनिक धुन के साथ विनम्रतापूर्वक मिश्रित किया.
यह यात्रा 1970 के रॉक फ्यूजन से लेकर 2000 के दशक के इलेक्ट्रॉनिक फ्यूजन तक फैली हुई थी. इस सहयोग ने सारंगी को एक वैश्विक ‘संगीत भाषा’ के रूप में स्थापित किया. इसके अलावा, उन्होंने पॉप क्वीन मैडोना के एल्बम के लिए भी सारंगी बजाई और यहां तक कि गिटार वादक वॉरेन कुकुरुलो के साथ भी सहयोग किया.
जोधपुर (Rajasthan ) के सीकर घराने से ताल्लुक रखने वाले और अपनी कला के वारिस, उस्ताद खान का जीवन उस विरोधाभास को दर्शाता है जो कई शास्त्रीय कलाकारों के जीवन में होता है.
15 अप्रैल 1940 को जन्मे इस फनकार का जीवन 27 नवंबर 2011 को किडनी की विफलता के कारण समाप्त हुआ, पर तब तक उन्होंने सारंगी को अमर कर दिया था.
उस्ताद सुल्तान खान की विरासत को उनके पुत्र साबिर खान आगे बढ़ा रहे हैं, जो सीकर घराने में सारंगी की तालीम लेने वाले कलाकार हैं. साबिर खान ने भी अपने पिता की तरह, शास्त्रीय और समकालीन संगीत को जोड़ने की परंपरा को जारी रखा है, जिसका प्रमाण दंगल और जोधा अकबर जैसी फिल्मों में उनका संगीत योगदान है.
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वीकेयू/एबीएम