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New Delhi, 27 अक्टूबर . यह कहानी है सिस्टर निवेदिता की. एक ऐसी महिला, जिसने विदेशी धरती पर जन्म लिया, लेकिन अपने समर्पण और साहस से भारतीय इतिहास में अमिट छाप छोड़ी. उनका जीवन त्याग, सेवा और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन गया. उन्होंने दिखा दिया कि जन्म की जगह मायने नहीं रखती, बल्कि समर्पण, साहस और निष्ठा से किसी भी राष्ट्र और समाज में अमिट योगदान दिया जा सकता है.
मार्गरेट नोबल आयरलैंड के टाइरोन में 28 अक्टूबर 1867 को जन्मी. उनके पिता सैमुअल पादरी थे और माता मैरी दयालु स्वभाव की. उनके दादा जॉन नोबल भी पादरी थे, जिनमें ईश्वर और मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम था. मार्गरेट ने अपने दादा से साहस और देशभक्ति, और पिता से गरीबों के प्रति करुणा पाई. बचपन में ही वह अक्सर अपने पिता और दादा के साथ गरीबों के घर जाकर सेवा किया करती थीं.
श्री शारदा मठ वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, मार्गरेट में तत्कालीन रूढ़िवादी धर्म के तौर-तरीकों के प्रति असंतोष बढ़ता जा रहा था और वे संदेह और अनिश्चितता की भावना से ग्रस्त थीं. हालांकि, 1895 में उनका जीवन मोड़ पर आया, जब स्वामी विवेकानंद वेदांत का संदेश लेकर लंदन आए. उनके विचार और व्यक्तित्व मार्गरेट के लिए जैसे ‘जीवनदायिनी जल’ साबित हुए.
तीन साल बाद उन्होंने India को अपनी कर्मभूमि बनाने का निर्णय लिया और 1898 में कोलकाता आईं. स्वामी विवेकानंद ने 25 मार्च 1898 को उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा दी और नाम ‘निवेदिता’ रखा, जिसका अर्थ है ‘ईश्वर को समर्पित.’ बाद में उनके नाम के आगे ‘सिस्टर’ का संस्कृत शब्द ‘भगिनी’ जोड़ा गया.
मार्च 1899 में कोलकाता में प्लेग की महामारी फैल गई. विवेकानंद से प्रेरित निवेदिता ने समर्पित युवाओं से एक समिति बनाई और सड़कों, गलियों की सफाई और पीड़ितों की देखभाल में जुट गईं. उन्होंने चौबीसों घंटे काम किया, भोजन और आराम का त्याग किया. निवेदिता और उनकी टीम ने पूरे एक महीने तक अथक प्रयास जारी रखा. इस तरह के प्रयासों की बदौलत महीनेभर में ही महामारी पर काबू पा लिया गया.
इससे एक साल पहले ही 13 नवंबर 1898 को पावन माता के आशीर्वाद से निवेदिता ने कोलकाता के बागबाजार में लड़कियों का स्कूल खोला. उस समय रूढ़िवादी समाज में माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल भेजने में हिचकते थे. फिर भी निवेदिता ने अलग-अलग उम्र की लड़कियों के साथ शिक्षा की शुरुआत की. जून 1899 में वित्तीय सहायता के लिए वह यूरोप और अमेरिका गईं और फरवरी 1902 में India लौट आईं. उसी वर्ष स्वामी विवेकानंद को महासमाधि प्राप्त हुई.
उनके विश्वास को पूरा करने के लिए, उन्होंने अपने दुख को भुलाकर तुरंत कार्य करना शुरू कर दिया. उनका यह विश्वास दृढ़ होता गया कि विदेशी प्रभुत्व के अधीन एक राष्ट्र सामाजिक, Political या सांस्कृतिक, किसी भी पुनरुत्थान का स्वप्न नहीं देख सकता. उन्होंने उस देश की मुक्ति के लिए कार्य करने की शपथ ली, जिसे उन्होंने अपनाया था.
निवेदिता ने अपने स्कूल को राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र बनाया, जहां बंकिमचंद्र का ‘वंदे मातरम’ प्रार्थना के रूप में गाया जाता था. उन्होंने यह उपदेश दिया कि राष्ट्रवादी भावना और श्री रामकृष्ण और विवेकानंद के आदर्शों में विश्वास आशा की एक नई सुबह का सूत्रपात करेगा. निवेदिता का जीवन Political अभियानों, जनसभाओं और पुस्तकें लिखने का एक सतत चक्र बन गया था.
उनके लेखन और भाषणों ने युवाओं को एक उत्कृष्ट और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया. वे रवींद्रनाथ टैगोर और सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपालकृष्ण गोखले, रमेश चंद्र दत्ता, बिपिन चंद्र पाल और अरबिंदो घोष जैसे प्रख्यात राजनेताओं के लिए प्रेरणा का एक अटूट स्रोत थीं.
श्री शारदा मठ वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, निवेदिता ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत पर पुस्तकें लिखीं. उन्होंने अवनींद्रनाथ टैगोर और नंदलाल बोस जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों को प्रोत्साहित किया और अजंता, एलोरा व अतीत के अन्य महान भारतीय कलाकारों की कलाकृतियों के अध्ययन के लिए धन मुहैया कराया. 1902 से 1904 तक उन्होंने व्यापक व्याख्यान यात्राओं पर जाकर लोगों से India को स्वतंत्र बनाने के लिए प्रयास करने का आग्रह किया.
उनके भाषणों से औपनिवेशिक ब्रिटिश शासक क्रोधित हुए, लेकिन उन्हें चुप नहीं करा सके. जब ब्रिटिश Government ने बंगाल का विभाजन किया, जिसके परिणामस्वरूप व्यापक आंदोलन हुआ, तो निवेदिता भी इसमें कूद पड़ीं.
इसके तुरंत बाद, पूर्वी बंगाल में विनाशकारी बाढ़ आई. इसके बाद अकाल पड़ा. निवेदिता ने मीलों पानी में पैदल चलकर पीड़ितों की सहायता की और युवाओं को राहत कार्यों में लगाया. लगातार परिश्रम और स्वास्थ्य संकट के बावजूद उन्होंने अपनी जिम्मेदारी नहीं छोड़ी.
लगातार काम और आराम की कमी ने निवेदिता के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला. उनको अहसास हो चुका था कि उनके जीवन के ज्यादा दिन नहीं बचे हैं. उन्होंने एक कानूनी वसीयत बनाई, जिसमें उन्होंने अपनी संपत्ति, अपने पास मौजूद थोड़ा-बहुत पैसा और अपने लेखन का कॉपीराइट बेलूर मठ को भारतीय महिलाओं की राष्ट्रीय शिक्षा के लिए इस्तेमाल करने के लिए छोड़ दिया.
आखिर में 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में उन्होंने अंतिम सांस ली और त्याग और सेवा के अमर प्रतीक के रूप में अपना नाम पीछे छोड़ गईं.
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डीसीएच/एबीएम