New Delhi, 19 सितंबर . उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के आंवलखेड़ा गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में जन्मे पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने अपना पूरा जीवन मानव चेतना के उत्थान और नई सृष्टि के निर्माण के लिए समर्पित कर दिया. पिता पंडित रूपकिशोर शर्मा और माता दानकुंवारी देवी के पुत्र के रूप में उनका जन्म 20 सितंबर 1911 को हुआ था.
बचपन से ही आध्यात्मिकता की ओर आकर्षित इस बालक ने मात्र नौ वर्ष की आयु में गायत्री मंत्र की दीक्षा ली. समाज के तिरस्कार के बावजूद एक कुष्ठ रोगी बुजुर्ग महिला की सेवा करना उनके हृदय की उदारता का प्रतीक था. 15 वर्ष की अल्पायु में वसंत पंचमी (18 जनवरी 1926) को एक हिमालयी योगी स्वामी सर्वेश्वरानंद उनके प्रार्थना कक्ष में दर्शन देने के लिए प्रकट हुए. गुरु ने उन्हें उनके पूर्व जन्मों की स्मृति दिलाई तथा जीवन के उद्देश्य बताए.
इसके पश्चात आचार्य ने तीन दशकों में 24 महापुरश्चरण पूर्ण किए, प्रत्येक में 24 लाख गायत्री मंत्र जप के साथ कठोर तपस्या. उनकी आत्मकथा ‘हमारी वसीयत और विरासत’ में यह यात्रा वर्णित है.
स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाते हुए 1923-24 से गांधीजी के प्रेरणा से जुड़े और जेल यात्राएं कीं.
आचार्य की आध्यात्मिक यात्रा चार हिमालय यात्राओं (1937, 1959, 1971, 1984) से समृद्ध हुई, जहां उन्होंने साधना और युग निर्माण की योजना बनाई. 1933 से देशव्यापी भ्रमण शुरू कर रवींद्रनाथ टैगोर, अरविंद जैसे महापुरुषों से भेंट की.
1938 में पत्रिका ‘अखंड ज्योति’ के माध्यम से ‘विचार क्रांति अभियान’ आरंभ किया, जो साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा पर आधारित था. 1943 में भगवती देवी शर्मा से विवाह हुआ, जो उनकी जीवनसंगिनी और सहयोगी बनीं. दोनों ने 1946 में अपनी संपत्ति बेचकर समाज कल्याण के लिए समर्पित कर दिया.
1953 में मथुरा में गायत्री तपोभूमि की स्थापना की, जहां 2400 तीर्थों का जल, 2400 करोड़ गायत्री मंत्र हस्तलिखित प्रतियां और हिमालय से लाया गया अखंड अग्नि स्थापित किया.
1958 के सहस्र कुंडीय गायत्री महायज्ञ से युग निर्माण योजना की नींव पड़ी. 1963 में ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’ नारे के साथ युग निर्माण सत्संकल्प शुरू हुआ, जिसमें 100 सूत्रों के माध्यम से सामाजिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक परिवर्तन पर जोर दिया.
1972 में हरिद्वार के शांतिकुंज को ऋषि परंपरा का केंद्र बनाया, जो आज गायत्री परिवार का मुख्यालय है.
1979 में ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान स्थापित कर विज्ञान और आध्यात्मिकता के संश्लेषण पर कार्य किया. उनके अनुयायियों ने 2002 में देव संस्कृति विश्वविद्यालय की स्थापना की, जो मूल्याधारित शिक्षा पर केंद्रित है.
साहित्य सृजन में उनका योगदान अतुलनीय है. 3000 से अधिक पुस्तकों का संग्रह ‘वंग्मय’ के 108 खंडों में संकलित है, जो हिंदी में अनुवादित वेद, उपनिषद, पुराण, दर्शन आदि को सरल बनाता है.
प्रमुख कृतियां ‘गायत्री महाविज्ञान’ और 18 खंडीय ‘प्रज्ञा पुराण’ हैं. उन्होंने जातिगत बंधनों को तोड़ा, हरिजनों और महिलाओं को गायत्री दीक्षा दी और ब्रह्मवादीनी समूह गठित किए. महिलाओं के वैदिक पाठ अधिकार को शास्त्रों से प्रमाणित कर लाखों महिलाओं को गायत्री जप से जोड़ा.
आचार्य का महासमाधि मात्र 78 वर्ष की आयु में 2 जून 1990 को गायत्री जयंती पर हुआ. साल 1998 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में उन्हें सम्मानित किया गया और 1991 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया गया.
‘वेदमूर्ति’ उपाधि प्राप्त इस युगऋषि की विरासत आज विश्व गायत्री परिवार के माध्यम से जीवंत है, जिसमें 15 करोड़ सदस्य और 5000 केंद्र हैं.
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एकेएस/डीकेपी