इतिहास : पटेल ने कहा- हैदराबाद को भारत में आना ही होगा, 12 सितंबर को जब रियासत के विलय के लिए उठाया गया पहला कदम

New Delhi, 11 सितंबर . साल था 1947, भारत को आजाद हुए कुछ महीने ही बीते थे. अंग्रेज हिंदुस्तान छोड़कर गए तो थे, लेकिन वे ऐसे देश की नींव रखकर जा रहे थे, जो गृह कलह और रक्तपात में उलझा रहे. हिंदुस्तान के सीने को चीरते हुए उसके दो टुकड़े आजादी के साथ ही कर दिए गए थे, लेकिन अंग्रेज जाते-जाते कुछ रियासतों को भारत से दूर रखने की चाल चलकर गए. 562 रजवाड़ों में से 3 रियासतों ने भारत में विलय से इनकार किया था. उन्हीं तीन में से एक रियासत हैदराबाद थी, जिसने अलग मुल्क का ख्याल बुन लिया था.

आबादी और कुल उत्पाद की दृष्टि से हैदराबाद रियासत हिंदुस्तान के सबसे प्रमुख राजघरानों में शामिल थी, जिसका क्षेत्रफल ब्रिटेन-स्कॉटलैंड जैसे देशों से भी अधिक था और उसी तरह आबादी यूरोप के कई देशों से अधिक थी. अंग्रेजों के समय में हैदराबाद की अपनी सेना हुआ करती थी. लगभग 80 प्रतिशत आबादी हिंदू होने के बावजूद यहां मुसलमान प्रशासन और सेना में महत्वपूर्ण पदों पर थे. सरल शब्दों में कहें तो प्रशासन लगभग पूरी तरह से मुस्लिम शासकों के अधीन था.

आजादी से पहले का ब्रिटिश भारत स्वतंत्र रजवाड़ों और प्रांतों से मिलकर बना था, जिन्हें भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने के विकल्प दिए गए थे. जिन लोगों ने निर्णय लेने में काफी समय लगाया, उनमें से एक हैदराबाद के निजाम भी थे. हैदराबाद रियासत के निजाम, मीर उस्मान अली शाह, अपनी रियासत को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में रखना चाहते थे और आजादी के बाद भारत या पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहते थे. निजाम ने इस बात का फायदा उठाया कि आजादी के तुरंत बाद Government of India कश्मीर युद्ध में व्यस्त हो गई थी और सारा ध्यान और संसाधन जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी खतरे से निपटने में लगा दिए गए थे.

हालांकि, जूनागढ़ की रियासत हैदराबाद से पहले घुटनों पर आ चुकी थी. यहीं से हैदराबाद के निजाम को संदेश मिल गया कि अगला नंबर उसकी रियासत का होगा. समाचार और लेखों में यह जिक्र है कि जब निजाम के प्रतिनिधि के तौर पर उसके सबसे करीबी सैयद कासिम रजवी दिल्ली में सरदार पटेल से मिलने आए तो पटेल ने दो विकल्प दिए थे, जिसमें एक भारत में विलय और दूसरा जनमत संग्रह का था.

उस समय भारत के गृह सचिव रहे एचवीआर आयंकर ने एक इंटरव्यू में कहा था, “पटेल का मानना था कि भारत के दिल में ऐसे हैदराबाद का होना, जिसकी निष्ठा देश की सीमाओं के बाहर हो, भारत की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा था.”

सरदार पटेल उस समय के हैदराबाद को ‘भारत के पेट में कैंसर’ की तरह देखते थे, जिसे बर्दाश्त करना संभव नहीं था. पटेल के जीवनीकार राजमोहन गांधी ने भी इस विषय को लेकर अपनी किताब में उल्लेख किया था.

एजी नूरानी ने अपनी किताब ‘द डिस्ट्रक्शन ऑफ हैदराबाद’ में लिखा, “हैदराबाद के विषय पर बुलाई गई कैबिनेट बैठक में नेहरू और पटेल दोनों मौजूद थे. पटेल के लिए सैनिक कार्रवाई पहला विकल्प था और बातचीत के लिए उनके पास धैर्य नहीं था.”

कई प्रयासों के बाद जम्मू-कश्मीर का भी भारत में विलय हो गया, लेकिन हैदराबाद रियासत के निजाम किसी कीमत पर भारत में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार करने पर सहमत नहीं थे. निजाम ने रियासत की सेना के साथ रजाकारों की एक फौज खड़ी की और फिर इसके बल पर भारत के साथ जाने की आवाज उठाने वाले लोगों का कत्लेआम शुरू कर दिया था.

इस बीच, 11 सितंबर 1948 को मोहम्मद अली जिन्ना की मौत की खबर आई थी. हालांकि, इससे पहले हैदराबाद में मचे कत्लेआम को देखते हुए भारत निजाम के खिलाफ अपने अभियान की रणनीति तय कर चुका था. 12 सितंबर 1948 को दिल्ली स्थित भारतीय सेना मुख्यालय ने पुणे स्थित दक्षिणी कमान मुख्यालय को एक संदेश भेजा. यह संदेश ‘आगे बढ़ने’ और भारत के इतिहास व भूगोल को विस्तार देकर हमेशा के लिए बदलने वाला था.

12 सितंबर को भारतीय सेना ने हैदराबाद में सैन्य अभियान शुरू किया, जिसे ‘ऑपरेशन पोलो’ नाम दिया गया था. समाचार और लेखों में इस नाम के पीछे की कहानी बताई जाती है कि उस समय हैदराबाद में 17 पोलो के मैदान थे, जो विश्व में सबसे अधिक थे.

13 सितंबर 1948 को भारतीय सेना ‘ऑपरेशन पोलो’ के तहत हैदराबाद में घुस चुकी थी. भारतीय सेना और रजाकारों के बीच करीब 4 दिनों तक संघर्ष चला और फिर निजाम ने हथियार डाल दिए. हालांकि, तब तक हजारों की संख्या में लोग मारे गए थे. कई देशभक्तों की कुर्बानियों के बाद हैदराबाद का भारत में विलय हो पाया.

डीसीएच/जीकेटी