नई दिल्ली, 1 अप्रैल . ऑस्ट्रेलियाई रिसर्चर्स की एक टीम ने मंगलवार को कहा कि अगर वैश्विक स्तर पर तापमान में 4 डिग्री की वृद्धि होती है तो दुनिया की जीडीपी में वर्ष 2100 तक करीब 40 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिल सकती है. इसमें पिछले अनुमान के मुकाबले 11 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है.
यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स (यूएनएसडब्ल्यू) के इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट रिस्क एंड रिस्पॉन्स (आईसीआरआर) के नए अनुमान के मुताबिक, रिसर्च के परिणाम वैश्विक तापमान को 1.7 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का समर्थन करते हैं, जो कि पेरिस समझौते जैसे तीव्र डीकार्बोनाइजेशन लक्ष्यों के अनुरूप है और पिछले मॉडलों के तहत समर्थित 2.7 डिग्री सेल्सियस से काफी कम है.
मुख्य रिसर्चर डॉ. टिमोथी नील ने कहा, “अर्थशास्त्री पारंपरिक रूप से क्लाइमेट डैमेज की लागत का आकलन करने के लिए मौसम की घटनाओं की तुलना आर्थिक विकास से करते हुए ऐतिहासिक आंकड़ों को देखते रहे हैं.”
उन्होंने आगे कहा कि वे इस बात का हिसाब देने में विफल रहे हैं कि वर्तमान में आर्थिक झटकों से निपटने के लिए वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में व्यवधान उत्पन्न हो रहा है.
डॉ. नील के मुताबिक, “आने वाले समय में मौसम गर्म होने का प्रभाव भी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर देखने को मिलेगा.”
उन्होंने आगे कहा कि इन नुकसानों को ध्यान में नहीं रखा गया है, इसलिए पहले के आर्थिक मॉडल ने अनजाने में यह निष्कर्ष निकाला है कि गंभीर जलवायु परिवर्तन भी अर्थव्यवस्था के लिए कोई बड़ी समस्या नहीं है.
लोकल-ऑन्ली डैमेज मॉडल का उपयोग आर्थिक पूर्वानुमान में किया गया है जिसने प्रमुख शक्तियों की जलवायु नीतियों को आकार दिया है और अंतर्राष्ट्रीय समझौतों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
डॉ. नील ने कहा, “यह माना जाता है कि रूस या कनाडा जैसे कुछ ठंडे देशों को जलवायु परिवर्तन से लाभ होगा, लेकिन आपूर्ति श्रृंखला निर्भरता का मतलब है कि कोई भी देश इससे अछूता नहीं है.”
स्टडी में बताया गया कि हालांकि, अभी भी काम किया जाना बाकी है क्योंकि उनके शोध में जलवायु अनुकूलन, जैसे मानव प्रवास, को शामिल नहीं किया गया है, जो राजनीतिक और तार्किक रूप से जटिल है और इसके लिए अभी तक पूरी तरह से मॉडल नहीं बनाया गया है.
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एबीएस/