29 अगस्त: दो फौजियों के नाम है आज का ये दिन, दोनों ही मेजर जिन्होंने देश के लिए दिया सर्वोच्च बलिदान

नई दिल्ली, 29 अगस्त . ‘चीर के बहा दूं लहू दुश्मन के सीने का, यही तो मजा है फौजी होकर जीने का…’, दिल में कुछ ऐसे जज्बात लिए भारत मां के वीर सपूत घर-परिवार की चिंता से दूर बॉर्डर पर दुश्मनों से लोहा लेने के लिए डटे रहते हैं. इनके मन में मरने का डर नहीं, बल्कि तिरंगे की शान में जरा सी भी आंच न आने देने का जुनून होता है. आज (29 अगस्त) की तारीख भी भारतीय आर्मी के लिए बेहद खास है. ये दिन देश के दो सपूतों के नाम भी दर्ज है.

युद्ध में पाकिस्तान हो या कोई भी अन्य दुश्मन, हर बार भारत के वीर सैनिकों ने मुंहतोड़ जवाब दिया है. इन्हीं वीर सैनिकों में से एक थे मेजर मनोज तलवार और दूसरे मेजर सुधीर कुमार वालिया.

भारतीय आर्मी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में से एक मानी जाती है. सरहद हो या शहर, जवान 24 घंटे देश की सेवा में तत्पर रहते हैं. ये जोश, ये जुनून उनमें आखिर आता कैसे है?, एक जवान जब वर्दी में होता है, तो उसमे एक अलग जुनून होता है. वहीं कुछ ऐसे भी होते हैं, जो छोटी सी उम्र में ही फौजी बनने का फैसला कर लेते हैं. उनमें से ही एक थे मेजर मनोज तलवार. कारगिल युद्ध में मेजर मनोज तलवार ने अदम्य साहस का परिचय दिया था.

मूल रूप से पंजाब के जालंधर निवासी सेना में कैप्टन पीएल तलवार के सुपुत्र मनोज तलवार का जन्म 29 अगस्त 1969 को मुजफ्फरनगर की गांधी कॉलोनी में हुआ था.

मात्र 10 साल की उम्र में पिता की यूनिफॉर्म पहनकर अपने दोस्तों के साथ खेल-खेल में जवानों की तरह जंग लड़ते थे. जवानों को देखकर यही कहते कि मैं बड़ा होकर सेना में जाऊंगा. वह अपने दोस्तों से भी कहते थे कि मैं फौजी बनूंगा.

धीरे-धीरे उम्र के साथ मनोज का जुनून बढ़ता गया और आखिरकार उन्होंने फौजी बनने का अपना सपना पूरा किया. क्रिकेट के शौकीन मेजर मनोज तलवार के जन्मदिन पर उनसे जुड़ा एक ऐसा किस्सा बताएंगे जो आपकी आंखे नम कर देगा.

मनोज के देश प्रेम का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जब एक बार उनकी मां और बहन ने उनसे शादी की बात छेड़ी थी तो उनका जवाब था, ‘मां मैं सेहरा नहीं बांध सकता, क्योंकि मेरा तो समर्पण देश के साथ जुड़ चुका है और मैं वतन की हिफाजत के लिए प्रतिबद्ध हूं. मैं किसी लड़की का जीवन बर्बाद नहीं कर सकता. उन्होंने अपनी शहादत के साथ संकल्प के पीछे की कहानी बयां कर दी.

वो 13 जून 1999 का ही दिन था. जब कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी घुसपैठिये और फौज लगातार फायरिंग और तोप के गोले बरसा रही थी. मेजर मनोज तलवार के नेतृत्व में सैन्य टुकड़ी आगे बढ़ी और पाकिस्तानी जवानों संग घुसपैठियों को वापस जाने पर मजबूर कर दिया और टुरटुक की पहाड़ी पर तिरंगा फहरा लिया. लेकिन इसी बीच दुश्मनों की ओर से दागे गए गोले से वे शहीद हो गए. मरणोपरांत उनको वीर चक्र से सम्मानित किया गया.

दूसरा नाम मेजर सुधीर कुमार वालिया का है, जो 29 अगस्त को ही शहीद हुए थे. कारगिल युद्ध, ऑपरेशन विजय ऐसे कई बड़े ऑपरेशन में भारत मां के इस लाल ने दुश्मनों को छठी का दूध याद दिला दिया. उनका खौफ दुश्मनों के मन में ऐसा था कि आतंकी थर-थर कांपने लगते थे. उन्हें भारतीय सेना का ‘रैंबो’, कहा जाता था.

कारगिल में पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने के मामले में ‘रैंबो’ का नाम मशहूर है. सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार अशोक चक्र से सम्मानित मेजर सुधीर वालिया ने न सिर्फ करगिल की पहाड़ियों में पाकिस्तानी फौज के छक्के छुड़ाए, बल्कि कई आतंकियों को भी ढेर किया. उनसे जुड़े ऐसे कई बहादुरी के किस्से हैं. खतरों के इस खिलाड़ी ने एक खतरनाक ऑपरेशन में 29 अगस्त, 1999 को आंतकवादियों का सामना किया. कुपवाड़ा के घने जंगलों में जबरदस्त फायरिंग हुई जिसमें मेजर शहीद हो गए.

मेजर सुधीर वालिया के बहादुरी के किस्सों को सेना के ही एक कर्नल आशुतोष काले ने एक किताब ”रैंबो” में संजोया है. 9 पैरा स्पेशल फोर्सेज के मेजर सुधीर वालिया, जो अपने साथियों में रैंबो के नाम से ही मशहूर थे. जैसा उनका नाम था, वैसे ही उनके कारनामे भी थे.भले ही वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शौर्य गाथाएं आज भी सेना में लोग भूले नहीं हैं.

एएमजे/केआर